________________
१७०
आङ्गिरसस्मृति
त्रिप्रायक श्राद्ध का वर्णन
७१-७६ लाजहोम से पूर्व यदि वधू रजस्वला हो तो "हविष्मती" इस मन्त्र
से नो कुम्भों के विधान से स्नान कर वस्त्र बदलने से शुद्धि ७७-८१ लाजहोम के बाद होने पर स्नान कराकर अवशिष्ट निमन्त्रक विधि करे और शुद्ध होने पर समन्त्रक विधि यथावत् करे
८२-८४ औपासन अभी आरम्भ न हो और दूसरे दिन रजस्वला हो तो
उसी प्रकार अमन्त्रक विधि एवं शुद्ध होने पर मन्त्रोच्चारण के साथ क्रिया करे
८५-६३ आशौच में नित्यनैमित्तिक कर्मों का वर्जन
६४-६५ इनसे प्रेतकृत्य का नाश होता है अतः वजित हैं
६५-६७ अत्यन्याय, अतिद्रोह और अतिक्र रता कलि में भी वजित है । अति अक्रम और अतिशास्त्र भी वर्जित है
६८-१०३ जीवत्पितृक पिण्ड पितृ यज्ञ श्राद्ध का वर्णन
१०४-१०७ पिता यदि सन्यास ले ले तो पातित्यादि दूषित होने पर उनके पितादि के श्राद्ध का विधान
१०८-११७ इसी प्रकार चाचा आदि की स्त्रियों का
११८-१२० गीणमाता के श्राद्ध का विधान
१२१-१२५ श्राद्धाधिकार और श्राद्ध कर्ता गौणपिता के लिए भाई का पुत्र सपत्नीक कृतकृिय भी पुत्र संज्ञा पाता है
१२६-१२६ गोत्र नाम का अनुबन्ध व्यत्यास होने पर फिर कर्म करे १३०-१३२
अनाथप्रेतसंस्कारेऽश्वमेधफलवर्णनम् : २६६३ कर्ता के दूर होने पर प्रेष्यत्व करे
१३३-१३४ अन्य से करने पर, वाङ्मात्रदान करने पर श्राद्धमात्र होता है १३५-१३८ भ्रष्ट एवं पतितों का घट स्फोटन का अधिकार
१३६-१४० अनाथप्रेत के संस्कार करने से अश्वमेध यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है व प्रेत के संस्कार न करने में दोष
१४२-१४३ विप्र की आज्ञा से यतिकृत्य
१४४-१४७ कर्ता के निकट होने पर अकर्तृकृत को फिर करे
१४८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org