________________
१००
शङ्खस्मृति १७. क्षत्रियाविवधेयवाद्यपहारे-व्रतवर्णनम् : १४४७ पापों के प्रायश्चित्त । जिस पाप में जो प्रायश्चित्त कहा है उनकी विधि । पराक व्रत, कृच्छ व्रत तथा चान्द्रायणादि
गोश्चक्षीरं विवत्सायाः संधिम्याश्च सपा पयः । संधिन्यमेध्यं भक्षित्वा पक्षन्तु व्रतमाचरेत् ॥ २६ ॥ क्षीराणि यान्यभक्ष्याणि तद्विकाराशने बुधः ।
सप्तरात्रं व्रतं कुर्याद्यवेतच्चपरिकीर्तितम् ॥१०॥ १८. अघमर्षण, पराक, वारणकृच्छ, अतिकृच्छ,
सान्तपनादिवतः१४५३ अघमर्षण, पराक शान्तपन तथा कृच्छ व्रत की विधि
१-१६
लिखितस्मृति १. इष्टापूर्तकर्मवृषीत्सर्गगयापिण्डदानषोडश
श्राद्धानांवर्णनम् : १४५५ इष्ट के करने से स्वर्ग प्राप्ति और पूर्त से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन किया है । वापी, कूप, तड़ाग, देव मन्दिर तथा पतितों का जो उद्धार करें उसे पूर्त तथा अग्निहोत्र वैश्वदेवादि कार्य करें उसे इष्ट कहते हैं । इष्टापूत कर्म का विधान तथा लक्षण बताया है। गङ्गा में अस्थि प्रवाह का माहात्म्य तथा एकोद्दिष्ट श्राद्ध का वर्णन, श्राद्ध में भोजन करने वालों के नियम तथा नवश्राद्धों का वर्णन एवं अशीच वर्णन तथा चाण्डाल के जल पान का निषेध
शङ्खलिखित स्मृति १. वैश्वदेवमकृत्ववमुञानस्यकाकयोनिवर्णनम् : १४६४ बलि वैश्वदेव, अतिथि पूजन का महत्व बताया है ।
परान्नं परवस्त्रं च परयानं परास्त्रियः ।
परवेश्मनि वासश्च शक्रस्यापि श्रियं हरेत् ।। सांस्कृतिक जीवन का वर्णन किया गया है
१-३२
१-६६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org