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याज्ञवल्क्य स्मृति
द्वेष का त्याग कर अपने आप की शुद्धि जिससे आत्मज्ञान का विकास हो ऐसा करना चाहिये ।
सत्यमस्तेयमक्रोधो ह्रीः शौचं धी तिर्दमः।
संयतेन्द्रियता विद्या धर्मः सावं उदाहृतः ।। सत्य, अस्तेय, अक्रोध, पवित्रादि में सब धर्म बतलाये हैं। अध्यात्म ज्ञान का प्रकरण आया है। जैसे तप्त लौह पिण्ड से
चिनगारी निकलती है उसी प्रकार उस प्रकाश पुंज आत्मा से यह समष्टि व्यष्टि संसार रूपी चिनगारी निकलती है । आत्मा अजर अमर है शरीर में आने से इसे जन्म लेना कहते हैं । सूर्घ की तपन से वृष्टि फिर औषघि तथा अन्न होकर शुक्र हो जाता है । स्त्री पुरुष के संयोग से यह पञ्चधातुमय शरीर पैदा होता है। एक एक तत्त्व से शरीर की एक एक चीज का बनना लिखा है । चौथे महीने में पिण्डाकार बनता है तथा पाचवें में अंग बनने लग जाते हैं। छठे महीने में बाल, नख, रोम और सातवें आठवें में चमड़ा, मांस बनकर स्मृति पैदा हो जाती है । इस प्रकार जन्म मरण के दु:ख को दिखाया गया है। मनुष्य शरीर में कितनी नस कितनी धमनी तथा मर्मस्थान हैं इन सबका वर्णन कर शरीर को अस्थिर अनित्य नाशवान बतला कर मोक्ष मार्ग में लगने का उपदेश किया गया है । योगशास्त्र, उपनिषदों के पठन एवं वीणा वादन से मन की एकाग्रता बताई है।
वीणवादनतत्वज्ञः श्र तिजातिविशारदः ।
तत्वज्ञश्चाप्रयासेन मोक्षमार्ग नियच्छति ॥ वीणा वादन के तत्त्व को जाननेवाला और ताल के ज्ञानवाला
मोक्ष मार्ग पा लेता है । इस प्रकार मोक्ष मार्ग के साधन और संसार के अनित्य सुखों के वैराग्य का वर्णन तथा कुण्डलिनी योग, ध्यान, धारणा और सत्य की उपासना एवं वेद का अभ्यास वताकर जीवन यात्रा का श्रेय नीचे लिखे श्लोक में स्पष्ट किया है
न्यायागतधनस्तत्त्वज्ञाननिष्ठोऽतिथिप्रियः । श्रायकृत् सत्यवादी च गृहस्थोऽपि हि मुच्यते ॥
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