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[ ५१ ] अणसण करि अणगार, संवत सतरै सय बीड़ोत्तरे ।
यहमदावाट मझार, परलोक पहुँता हो चैत सुदि तेरसै || अहमदाबाद में इनके स्वर्गवास के स्थान तथा पादुकाओं का । अभी तक पता नहीं चला, पर बीकानेर के निकटवर्ती नाल एव जैसलमेर में दो पादुकाओ के दर्शन हमने किए हैं।
शिष्य-परम्परा-एक प्राचीन पत्र के अनुसार इनके शिष्यों की संख्या वयालीस थी, जिनमें वादी हर्षनन्दन प्रधान थे । न्यायशास्त्र के 'चिंतामणि' ग्रंथ तक के अध्येता के रूप में इनका उल्लेख कवि ने स्वयं किया है । इनके रचे तीन विशाल टीका-ग्रंथ (ऋषिमंडल वृत्ति, उत्तराध्ययन वृत्ति, स्थानांग गाथागत वृत्ति) तथा कई अन्य ग्रन्थ हैं। हर्षनन्दन के शिष्य जयकीति द्वारा विरचित सुप्रसिद्ध राजस्थानी भक्तिकाव्य 'कृष्ण रुक्मिणी वेलि वालावबोध' उपलब्ध है। जयकीति के शिष्य राजसोम की भी 'पारसी-भापा-स्तवन' तथा गुरुगीतादि रचनाएँ मिलती है। हर्पनन्दन के दया विजय नामक शिष्य थे, जिनके लिये 'ऋषिमण्डल वृत्ति' की रचना हुई और जिन्होंने 'उत्तराध्ययन वृत्ति' का प्रथमादर्श लिखा।
समयसुंदरजी के मेघविजय नामक एक विद्वान् शिष्य थे, जिनके शिष्य हर्षकुशल की 'वीसी' आदि कृतियां मिलती है। इनके शिष्य हर्पनिधान के शिष्य ज्ञानतिलक के शिष्य विनयचन्द्र अठारहवीं शती के प्रमुख कवि थे, जिनकी 'उत्तमकुमार चौपई', 'चौबीसी' आदि सभी रचनाएँ विनयचन्द्र कृति कुसुमाजलि मे प्रकाशित हैं।
कवि के अपर शिष्य मेघकीर्ति की परम्परा में आसकरण के