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[ २७ ] छिन्न होकर आ गिरा। लक्ष्मण को इस घटना से अपार दुख हुआ। उसने सोचा-मेरे पौरुप को धिक्कार है। मैंने एक निरपराध विद्याधर को मार कर भयंकर पाप उपार्जन कर लिया। उसने राम के समक्ष सारी बात कही तो राम ने कहा-इस प्रकार जिन प्रतिषिद्ध अनर्थदण्ड कभी नहीं करना चाहिए, भविष्य मे ख्याल रखना। जब चन्द्रनखा पुत्र को संभालने आई और उसे मरा हुआ देखा तो पुत्र शोक से अभिभूत होकर नाना विलाप करने लगी। अन्त में रोने पीटने से कुछ हृदय हलका होने से संबुक को मारने वाले की खोज में दण्डकारण्य मे घूमने लगी।
रूपगर्विता चन्द्रनखा का पतन चन्द्रनखा ने घूमते हुए जब दशरथनन्दन को देखा तो सौन्दर्यासक्त होकर पुत्र शोक को भूल कर कन्या का रूप धारण करके राम के पास पहुँची। वह नाना हाव-भाव, विभ्रम से राम को मुग्ध करने की चेष्टा करने लगी। राम ने उसे वन में अकेली धूमने का कारण पूछा तो उसने कहा-मैं वंशस्थल की वणिकपुत्री हूं, मेरे माता-पिता मर गए, अब मैं आपकी शरणागत हूं, मुझे ग्रहण करें! निर्विकार राम ने जब मौन धारण कर लिया और उसकी मोहिनी न चली तो उसने क्षुब्ध होकर स्वयं अपने शरीर को नख-दातों से क्षत विक्षत कर लिया और वह रोती कलपती अपने पति के पास पहुंची।
खरदूपण सैन्य पतन और सीता-हरण चन्द्रनखा ने खरदूपण से कहा-किसी भूचर ने चन्द्रहास खङ्ग लेकर संबुक को मार डाला और मेरी यह दुर्दशा कर दी, मैं किसी