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[ ६० ] इधर पुण्डरीकपुर का राजा बजंघ हाथियों को पकड़ने के लिये इस उंगल में आया हुआ था। उसने सीता को रोते हुए देखा। अद्भुत सौन्दर्यवाली महिला को इस अटवी में देख कर उसके आश्चर्य की सीमा नहीं रही। उसने अपने मन में विचार किया कि यह अवश्य ही किसी राजा की रानी है, और गर्भवती भी है, न . मालूम किस कष्ट में पड़ी हुई है ? राजा ने अपने सेवकों को सीता के निकट भेजा। उसने भयभीत होकर आभरण फेकते हुए कहा कि-मुझे स्पर्श न करना । सेवकों ने कहा-वहिन तुम कौन हो ? हमें आभूषणों से कोई प्रयोजन नहीं, हमारे स्वामी राजा वजंव ने तुम्हारी खवर करने भेजा है। इतने में ही बनजंघ स्वयं मन्त्री भतिसागर के साथ वहा
आ पहुंचा। उसने सीता से परिचय पूछा तो उसने मौन धारण कर लिया। मंत्री ने कहा-विपत्ति किसमे नहीं आती, तुम नि:संकोच अपना दुख कहो। ये मेरे स्वामी राजा वजूजघ आर्हत् धर्मोपासक सदाचारी
और बढ़ सम्यक् दृष्टि हैं, स्वधर्मी के प्रति अत्यन्त स्नेह रखते है । तुम निर्भय होकर अपने भाई से वोलो । मंत्री की बातों से आश्वस्त होकर सीता ने वजूजघ से अपनी सारी कथा कह सुनाई। वनजंघ ने सीता को धैर्य बंधाते हुए कहा-तुम मेरी धर्मवहिन हो, मेरे नगर में चलकर आराम से अपने शील की रक्षा करते हुए धर्माराधन करो। इस समय स्वधर्मी बन्धु के शरण मे जाना ही श्रेयस्कर समझकर राजा के साथ सीता पुण्डरीकपुर चली गई। राजा ने बड़े सम्मान से दास दासियों के सहित उसे अलग महल दे दिया, जिसमे वह सुखपूर्वक काल निर्गमन करने लगी। सभी लोग सीता के शील की प्रशंसा और राम के अविचारपूर्ण दुर्व्यवहार की निन्दा करने लगे।