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कर अर्हन्त भगवान की पूजा की। नमस्कार मन्त्र का ध्यान करके तीर्थपति मुनिसुव्रत स्वामी को नमस्कार कर वापी के निकट आई
और कहने लगी हे लोकपालो, मनुष्यों और देव-देवियों! मैंने श्री राम के सिवा अन्य किसी पुरुप की मन, वचन, काया से स्वप्न से भी वांछा की हो, राग दृष्टि से देखा हो तो मुझे अग्नि जला कर भस्म कर देना, अन्यथा जल हो जाना! सीता ने अग्निप्रवेश किया, उसके शील-प्रभाव से हवा बन्द हो गई, अग्नि ज्वाला मे से जल का अजस्र प्रवाह फूट पड़ा। पानी की बाढ से लोग डूबते हुए हाहाकार करने लगे। विद्याधर लोग तो आकाश में उड़ गए, भूचरों की पुकार सुनकर सती सीता ने अपने हाथ से जल-प्रवाह को स्तम्भित कर दिया। लोगों में सर्वत्र आनन्द उत्साह छा गया। लोगों ने देखा वापी के मध्य मे देव निर्मित स्वर्णमणि पोठिका पर सहस्र दल कमलासन पर सीता विराजमान है ! देव दुन्दुभि और पुष्प वृष्टि हो रही है । सीता के निर्मल शील की प्रसिद्धि सर्वत्र फैल गई, उभय कुल उज्ज्वल हुए।
सीता का चारित्र-ग्रहण राम ने सीता से क्षमायाचना करते हुए उसे सोलह हजार रानियों में प्रधान पट्टरानी स्थापन करने की प्रार्थना की। सीता ने कहा-नाथ ! यह संसार असार और स्वार्थमय है अव मुझे सांसारिक भोगों से पूर्ण विरक्ति हो गई है। अब मुझे केवल चारित्र-धर्म का ही शरण है। उसने अपने देशो का तुरन्त लोच कर लिया। सीता के लुंचित केशों को देखकर राम मूच्छित हो गए। शीतोपचार से सचेत होने पर विलाप करने लगे। सर्वगुप्ति मुनिराज ने सीता को दीक्षा देकर चरणश्री