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[१०] कैसे हो सकता है ? इसी बात की मुझे चिन्ता है। राम ने कहाआप प्रसन्नतापूर्वक भरत को राज्य देकर अपने वचनों की रक्षा करें, मुझे कोई आपत्ति नहीं। दशरथ ने भरत को बुला कर राज्य लेने के लिये समझाया। उसने कहा-मुझे राज्य से कोई प्रयोजन नहीं, मेरा दीक्षित होने का भाव है, आप राम को राज्य दीजिये। राम ने कहा मैं जानता हूँ कि तुम्हें राज्य का लोभ नहीं है पर माता के मनोरथ
और पितृवचनों की रक्षा के लिये तुम्हें ऐसा करना होगा! भरत ने कहा-बड़े भ्राता के रहते मेरा राज्य लेना असम्भव है। राम ने कहा-मैं वनवास ले रहा हूँ, तुम्हें आज्ञा माननी होगी!
सीता वनवास जव लक्ष्मण ने यह सुना तो वह दशरथ के पास जाकर इसका घोर विरोध करने लगा पर राम ने उसे समझा कर शान्त कर दिया। रामचन्द्र और लक्ष्मण वनवास के लिये प्रस्थान करने लगे, सीता भी पीछे चलने लगी। राम के बहुत समझाने पर भी सीता किसी भी प्रकार रुकने को राजी नहीं हुई और छाया की भांति साथ हो गई। तीनों मिल कर दशरथ के पास गए और नमस्कार पूर्वक अपने अपराधों की क्षमा याचना करते हुए बिदा मांगी। दशरथ ने कहासुपुत्रो ! तुम्हारा क्या अपराध हो सकता है ? मैं तो दीक्षा लेगा। तुम्हें जैसे उचित लगे करना, पर अटवी का मार्ग वड़ा विषम है सावधान रहना । इसके बाद दोनों माताओं से मिल कर उन्हें आश्वस्त
कर देव पूजा गुरु वदनान्तर सबसे क्षमतक्षामणा पूर्वक निर्दोष वन - की ओर गमन किया। उन्हें पहुंचाने के लिये राजा, सामन्त, मन्त्री