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-[ ४६ ] इस टिप्पनक की प्रति कविवर के स्वयं लिखित प्राप्त है जिसकी प्रशस्ति :-सं० १६६७ वर्षे फागुण सुदि ११ गुरुवारे श्री अहमदाबाद नगरे श्री खरतरगच्छे भट्टारक श्रीजिनसागरसरि विजयराज्ये संखवाल गोत्रे सं० नाथा भार्या सुश्राविका पुण्यप्रभाविका श्रा० धन्नादे सा० करमसी माता महोपाध्याय श्री समयसुन्दर पार्श्वे इच्छापरिमाण कीधा छै। श्रीरस्तु। कल्याणमस्तु ।। . कविवर बड़े गुणानुरागी थे। अपने से अवस्था, ज्ञान, पद आदि ___ में छोटे तथा भिन्न-गच्छीय पुंजापि की उत्कट तपश्चर्या की
प्रशंसा में उन्होंने १६६८ मे पुजा ऋषि रास' बनाया। इसी वर्ष 'आलोयणा छत्तीसी' भी बनाई। इनके रचे 'केशी-प्रदेशी-प्रबन्ध' की
सं० १६६६ चैत्र शुक्ल २ की हपंकुशल की सहायता से लिखी प्रति ' हमारे संग्रह में है। आषाढ़ कृष्ण १, सं० १७०० की इनकी लिखी 'तीर्थभास छत्तीसी' की प्रति वम्बई-स्थित रायल एशियाटिक सोसायटी के पुस्तकालय मे है। १७०० के माघ मे लिखी इनकी अन्तिम रचना 'द्रोपदी' चौपाई उपलब्ध है। इसमें अपनी पूर्व रचनाओं का निर्देश करते हुए इन्होंने वृद्धावस्था मे इसकी रचना का हेतु सूत्र, सती और साधु के प्रति अपना अनन्य भक्तिराग वतलाया है
पहिलं साधु सती तणा, कीधा घणा प्रवन्ध । हिव वलि सूत्र थकी कहुँ, द्रौपदी नउ सम्बन्ध ।।
वृद्धपणई मइ चउपइ, करिवा मांडी एह । सूत्र सती नइ साधु त्यु, मुझ मनि अधिक सनेह ॥