Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
जब तक महाराज सरोग रहे तब तक तो मैं किस प्रकार निरोग होऊँगा? मेरा यह रोग किस रीति से नष्ट होगा? इत्यादि चिन्ता के सिवाय महाराज के चित्त में किसी विचार ने स्थान नहीं पाया, किन्तु निरोग होते ही निरोगता के साथ-साथ उस कन्या के स्नेह, सेवा, रूपएवं सौंदर्य पर अतिशय मुग्ध होकर वे विचार करने लगे कि इस कन्या का रूप आश्चर्यकारक है, और इसके मनोहर वचन भी आश्चर्य करनेवाले ही हैं। तथा इसकी यह मन्द-मन्द गति भी आश्चर्य ही करनेवाली है, इसकी बुद्धि अतिशय शुभ है। इसके दोनों नेत्र चकित हरिणी के समान चंचल एवं विशाल हैं। अर्ध चन्द्र के समान मनोहर इसका ललाट है। और इसका मुख चन्द्रमा को कान्ति के समान कान्ति का धारण करनेवाला है। यह कोकिला के समान अतिशय मनोहर शब्दों को बोलनेवाली है, रूप एवं सौभाग्य की खानि है, अतिशय मनोहर इस कन्या के ये दोनों स्तन, खजाने के दो सुवर्णमय कलशों के समान उन्नत, कामदेवरूपी सर्प से कलंकित, अतिशय स्थूल हैं, और हरएक मनुष्य को सर्वथा दुर्लभ हैं। और इसके दोनों स्तनों के मध्य में अत्यंत मनोहर, कामदेवरूपी ज्वर को दमन करनेवाली नदी है। इसके समस्त अंगों की ओर दृष्टि डालने से यही बात अनुभव में आती है कि इस प्रकार सुन्दराकारवाली रमणीरत्न न तो कभी देखने में आई और न कभी सुनने में आई और न आवेगी ॥६०-६४॥
इति स्वरूपसौभाग्यं वितळ निजमानसे । यमदंडं प्रति प्राह वचनं स महीधरः ॥ ६५ ॥ देहि ते पुत्रिकां मह्य गुणभूमि सुखाकराम् ।
मन्येत्वतः सुखं जातं यतो मम महामते ॥६६ ॥ महाराज उपश्रेणिक इस प्रकार कन्या के स्वरूप की उधेड़-बुन में लगे थे कि इतने में ही राजा यमदंड उनके पास आये और उनसे महाराज उपश्रेणिक ने कहा कि हे भिल्लों के स्वामी यमदंड यह तुम्हारी तिलकवती नाम की कन्या नाना प्रकार के गुणों की खानी एवं अनेक प्रकार के सुखों को देनेवाली है आप इस कन्या को मुझे प्रदान कीजिए क्योंकि मेरा विश्वास है कि मुझे इसी से संसार में सुख मिल सकता है ॥६५-६६।।
इति वाक्यं समाकर्ण्य प्राख्यद्यमनराधिपः । मागधं प्रति संप्रीत्या कृतमौलिनमस्क्रियः ।। ६७ ।। क्व मे सुता क्व राजात्वमनेकस्त्री समाश्रितः । वर्तते बहवो नार्यस्तवदिव्यांगना समाः ॥ ६८ ॥ पुत्राश्च बहवो राजंस्तव श्रेणिकमुख्यकः । महाबलः समाकीर्णाः संति धीरा महीभृतः ॥ ६६ ॥ लघीयसी सुतेयं मे तुभ्यं दत्ता मयाऽधुना । पराभवभवां पीडां सहेत किमु योषितः ॥ ७० ॥
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