Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
अहोधीरत्वमेवात्र शूरत्वं शुभभावना । परीषहजयत्वं च समस्ति ज्ञाननायक ॥२१२।। क्षमयस्व कृपां कृत्वाऽपराधं में महामते । न ते स्तौ रागकोपौ च मित्रे शत्रौ हितेऽहिते ॥२१३॥ प्रार्थयेऽहं तथाषीह मम मानसशुद्धये । स्वामिन्गुणगणाराम वारिवारिदशारद ॥२१४।। सेति संस्तुत्य सद्भक्त्या नेमतुस्तौ पदांबुजं । तेनोभाभ्यां सुनम्राभ्यां धर्मवृद्धिरदायि च ॥२१५।। मागधेश ! वृषवारविभागात्
प्राप्यतेऽभ्युदयसंगमभारः । जन्मलाभकुलिता सुकुले स्यात्
तस्य वृद्धिरुभयोर्भव हान्य ।।२१६॥ क्वेदं पवित्रं मुनिदर्शनं तयोः,
___ क्व भूपतिः सौगतधर्मवंचितः । क्व चेलना बौद्धपरीक्षणं सदा,
क्व कोपभारो नृपतेजिने मते ॥२१७।।
यह नियम है दिगंबर साधु रात में नहीं बोलते इसलिए जब तक रात्रि रही मुनिराज ने किसी प्रकार वचनालाप नहीं किया। किंतु ज्योंही दिन का उदय हुआ। और अंधकार को तितरबितर करते हुए ज्योंही प्राची दिशा में सूर्योदय हो गया त्योंही रानी ने शीघ्र ही मुनिराज के चरणों का प्रक्षालन किया। एवं परम ज्ञानी, परम ध्यानी, जर्जर शरीर के धारक, मुनिराज की फिर से तीन प्रदक्षिणा दीं। और उनके चरणों की भक्ति-भाव से पूजा कर अपने पाप की शान्ति के लिए वह इस प्रकार स्तुति करने लगो
प्रभो! आप समस्त संसार में पूज्य हैं। अनेक गुणों के भंडार हैं। आपकी दृष्टि में शत्रुमित्र बराबर हैं। दीनबंधो! सुमार्ग से विमुख जो मनुष्य आपके गले में सर्प डालनेवाले हैं। और जो आपको फूलों के हार पहिनानेवाले हैं आपकी दृष्टि में दोनों ही समान हैं। कृपासिंधो! आप स्वयं संसार-समुद्र के पार पर विराजमान हैं। एवं जो जीव दुःखरूपी तरंगों से टकराकर संसाररूपी बीच समुद्र में पड़े हैं, उन्हें भी आप ही तारनेवाले हैं। जीवों के कल्याणकारी आप ही हैं। करुणासिंधो! अज्ञानवश आपकी जो अवज्ञा और अपराध बन पड़ा है, आप उसे क्षमा करें। कृपानाथ ! यद्यपि मुझे विश्वास है आप राग-द्वेष रहित हैं। आपसे किसी का अहित नहीं हो
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