Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
उत्तमोत्तम बावड़ी कूप एवं स्वादिष्ट धान्यों से शोभित, शूरपुर है। शूरपुर के बाजार में जिस समय रत्नों की ढेरी नजर आती है । उस समय यही मालूम होता है मानो पानी रहित साक्षात् समुद्र आकर ही इसकी सेवा कर रहा है । और जब ऊँचे-ऊँचे धनिक गृहों की शिखर पर सुवर्ण कलश देखने में आते हैं तब यह जान पड़ता है मानो चन्द्रमा इस नगर की सदा सेवा करता रहता है । वहाँ पर भक्ति भाव से उत्तमोत्तम जिनालयों में भगवान की पूजा कर भव्य जीव अपने पापों का नाश करते हैं । और मयूर जिस समय गवाक्षों से निकला हुआ । सुगंधित धुआँ देखते हैं तो उसे मेघ समझ असमय में ही नाचने लग जाते हैं । एवं वहाँ कई एक भव्य जीव संसार-भोगों से विरक्त हो सर्वदा के लिए कर्म - बन्धन से छूट जाते हैं।
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सूर्यपुर का स्वामी जो नीतिपूर्वक प्रजापालक एवं शत्रुओं को भयावह था, राजा मित्र था। राजा मित्र की पटरानी श्रीमती थी । श्रीमती वास्तव में अतिशय शोभायुक्त होने से श्रीमती ही थी । महाराज मित्र के श्रीमती रानी से उत्पन्न कुमार सुमित्र था । सुमित नीतिशास्त्र का भले प्रकार वेत्ता, विवेकी सच्चरित्र और विशाल किंतु मनोहर नेत्रों से शोभित था । राजा मित्र के मंत्री का नाम मतिसागर था । जो कि नीतिमार्गानुसार राज्य की सँभाल रखता था। मंत्री मतिसागर के मनोहर रूप की खानि, रूपिणी नाम की भार्या थी । और रूपिणी से उत्पन्न पुत्र सुषेण था । सुषेण माता-पिता को सदा सुख देता था । और प्रत्येक कार्य को विचारपूर्वक करता था । राजा मित्रका पुत्र सुमित्र और सुषेण दोनों समवयस्क थे। इसलिए वे दोनों आपस में खेला करते थे। सुमित को अभिमान अधिक था। वह अभिमान में आकर सुषेण को बड़ा कष्ट देता था। अनेक प्रकार की अवज्ञा भी किया करता था ॥ २०-४० ॥
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कदाचिज्जल केल्यर्थं दीर्घिकायां तौ पद्मवृ ंदसंकीर्णौ निमग्नौ सुमुखश्च महास्नेहात्कौतुकेन च वारिणी । बहुशो मज्जयत्येव सुषेणं खिन्नमानसं ॥ ४२ ॥ ससंक्लिश्यमना नैव प्रतिवाक्यं कदाचन । सुब्रूते साध्वसाद्राज्ञोऽशक्ये मौनं वरं सदा ।। ४३ ।। कालांतरेण सप्रापत्सुमुखो राज्यमुत्तमम् । राज्यस्थं परिज्ञाय सुषेणोऽतर्कयद्ह्रदि ॥ ४४ ॥
तं
अहो पूर्वं यथा सैष व्यतापयच्च दुष्टधीः । तथैव मां महापापीदानीं संतापयिष्यति ।। ४५ ।।
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ममज्जतुः । जलमध्यतः ।। ४१ ।।
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