Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रेणिक पुराणम्
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स्वर्ग मिलता है । एवं संसार में जितने सुख हैं वे भी सम्यग्दर्शन की कृपा से बात की बात में प्राप्त हो जाते हैं।
राजन् ! इस सम्यग्दर्शन की कृपा से जीवों के कुवत भी सुव्रत कहलाते हैं और उसके बिना योगियों के सुव्रत भी कुव्रत हो जाते हैं। भव्योत्तम ! तू अब किसी बात का भय प्रत कर। सम्यग्दर्शन की कृपा से आगे उत्सर्पिणी काल में तू इसी भरत क्षेत्र में पद्मनाभ नाम का धारक तीर्थंकर होगा। इसलिए तू आसन्न-भव्य है। तू अब निर्भय हो। तूने तीर्थंकर प्रकृति की कारण भावना भाली है। समस्त दोष-रहित तूने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है। और विनय गुण तुझ में स्वभाव से है। तेरा चित्त भी शीलव्रत की ओर झुका है। यह शीलवत व्रतों की रक्षार्थ छत्र के समान है। मगधेश्वर ! तू अपने चित्त में संवेग की भावना करता है। भव भोग से निवृत्त होने के लिए तप में भी मन लगाता है। शक्त्यनुसार धर्मार्थ जिन पूजा आदि में तेरा धन भी खर्च होता है। साधुओं का समाधान भी तू आश्चर्यकारी करता है। शास्त्रानुसार तू योगियों का वैयावृत्य भी करता है। समस्त कर्म-रहित जिनेन्द्र भगवान में तेरी भक्ति भी अद्वितीय है। भले प्रकार शास्त्र के जानकार उत्तमोत्तम आचार्यों की उपासना भो तू भक्ति और हर्षपूर्वक करता है। जिन प्रतिपादित शास्त्रों का तू भक्त भी है। इस समय षट् आवश्यकों में तेरी बुद्धि भी अपूर्व है। धर्म के प्रसार के लिए तू जैन मार्ग की प्रभावना भी करता है । जैन मार्ग के अनुयायी मनुष्यों में वात्सल्य भी तेरा उत्तम है।
राजन् ! त्रैलोक्य क्षोभ का कारण परम पवित्र सोलह भावना भाने से तूने तीर्थंकर पद का बन्ध भी बाँध लिया है। जब तू प्राणों का त्याग कर प्रथम नरक रत्नप्रभा में जायेगा और वहाँ मध्यम आयु का भोग कर भविष्यतकाल में नियम से रत्नधामपुरी में तू तीर्थंकर होगा।
मुनिनाथ गौतम के ऐसे वचन सुन महाराज श्रेणिक ने कहा
नाथ ! अधोगति का प्रियपना क्या है ? श्रेणिक का भीतरी भाव समझ गौतम गणधर ने राजा श्रेणिक को काल सूकर की कथा सुनाई। उसने पहले अपने पापोदय से सप्तम नरक की आयु बाँध पुनः किस रीति से उसका छेद किया सो भी कह सुनाया। इस प्रकार गौतम गणधर के वचनों से अतिशय सन्तुष्ट अनेक बड़े-बड़े राजाओं से पूजित महाराज ने जिनराज के चरण कमलों से अपना मन लगाया और समस्त कल्याणों से युक्त हो अपने पुत्र-पौत्रों के साथ शत्रु रहित हो गये। पापों से जो पहले सप्तम नरक की आयु बाँध ली थी उस आयु का अपने उत्कृष्ट भावों द्वारा महाराज श्रेणिक ने छेद कर दिया तथा तीर्थंकर नाम कर्म की शुभ भावना भाने से भविष्य में तीर्थकर प्रकृति का वन्ध वाँधकर अतिशय शोभा को धारण करने लगे। देखो भावों की विचित्रता? कहाँ तो सप्तम नरक की उत्कृष्ट स्थिति और कहाँ फिर केवल प्रथम नरक की मध्यम स्थिति ? यह सब धर्म का ही प्रसाद है। धर्म की कृपा से जीवों को अनेक कल्याण आकर
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