Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 327
________________ ३१४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् प्रिय भव्य ! रात्रि में भोजन करने से पतंग, डाँस, मक्खी आदि जीवों का घात होता है इसलिए महापुरुषों ने रात्रि का भोजन अनेक पाप प्रदान करने वाला हिंसामय, घृणित और अनेक दुर्गतियों का देने वाला कहा है। यह निश्चय समझो जो मनुष्य रात्रि में भोजन करते हैं वे नियम से उल्ल, बाघ, हिरण, सर्प, बिच्छू होते हैं। और रात्रि भोजियों को बिल्ली और मूसों की योनियों में घूमना पड़ता है। और सुन-जो मनुष्य रात्रि में भोजन नहीं करते उन्हें अनेक सुख मिलते हैं। रात में भोजन न करने वालों को न तो इस भव सम्बन्धी कष्ट भोगना पड़ता है और न परभव सम्बन्धी। इसलिए हे विप्र ! मैं तुम्हें रात में भोजन न दूंगी। सबेरा होते ही भोजन दूंगी। जिनमती की ऐसी युक्तियुक्त वाणी सुनकर विप्र ने शीघ्र ही रात्रि भोजन का त्याग किया और सवेरे आनन्दपूर्वक भोजन कर सम्यक्त्व गुण से भूषित किसी जैन मनुष्य के साथ गंगा स्नान के लिए चल दिया। मार्ग में चलते-चलते एक पीपल का वृक्ष, जो कि फलों से व्याप्त था। लम्बी शाखाओं का धारी, भाँति-भाँति के पक्षियों से युक्त और जिसके चौतर्फी बड़े-बड़े पाषाणों के ढेर थे, दीख पड़ा। वृक्ष को देखते ही ब्राह्मण का कंठ भक्ति से गद्गद हो गया। उसे देव जान शीघ्र ही उसकी तीन प्रदक्षिणा दी और बार-बार उसकी स्तुति करने लगा। विप्र रुद्रदत्त की ऐसी चेष्टा देख और उसे प्रबल मिथ्यामती समझ उसके बोधार्थ वह वाणिक कहने लगा प्रियवर ! कृपया कहो यह किस नाम का धारक देव है ? और इसका महात्म्य क्या है ? विप्र ने जवाब दिया-विष्णु भगवान के वास के लिए यह बोधिकर्म नाम का देव है। यह इच्छानुसार मनुष्यों का बिगाड़-सुधार कर सकता है। ब्राह्मण के मुख से वृक्ष की यह प्रशंसा सुन वणिक ने शीघ्र ही उसमें दो लात मारी और उससे पत्ते तोड़कर उन्हें जमीन पर बिछाकर शीघ्र ही उनके ऊपर बैठ गया और विप्र से कहने लगा प्रिय विप्र ! अपने ईश्वर का प्रताप देखो। अरे! यह वनस्पति मनुष्यों पर क्या रिसखुश हो सकती है? वणिक की वैसी चेष्टा देख रुद्रदत्त ने जवाब तो कुछ नहीं दिया किंतु अपने मन में यह निश्चय किया कि अच्छा क्या हर्ज है ? कभी मैं भी इसके देवता को देखंगा। इस वणिक ने नियम से मेरा अपमान किया है तथा इस प्रकार अपने मन में विचार करता-करता कहने लगा-भाई ! देव की परीक्षा में किसी को मध्यस्थ करना चाहिये । ब्राह्मण रुद्रदत्त के ऐसे वचन सुन वणिक ने उसके अन्तरंग की कालिमा समझ ली तथा वह वणिक उसे इस रीति से समझाने लगा प्रिय मित्र ! यह पीपल एकेन्द्रिय जीव है। इसमें न तो मनुष्यों के समान विशेष ज्ञान है न किसी प्रकार की सामर्थ्य है। यह तो केवल पक्षियों का घर है। तुम निश्चय समझो सिवाय शुभाशुभ कर्म के यहाँ किसी में सामर्थ्य नहीं जो मनुष्यों का बिगाड़-सुधार कर सके। प्रिय भ्राता! यह निश्चय है जो मनुष्य धर्मात्मा है बड़े-बड़े देव भी उनके दास बन जाते हैं और पापियों के आत्मीय जन भी उनके विमुख हो जाते हैं। इस प्रकार अपनी वचनभंगी से और जिनेन्द्र भगवान के आगम की कृपा से श्रावक वणिक ने शीघ्र ही ब्राह्मण का मिथ्यात्व दूर कर दिया और वे दोनों स्नेहपूर्वक बातचीत करते हुए आगे को चल दिये॥१-३२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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