Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रेणिक पुराणम्
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माता ! मेरे समान पुत्र का मोही इस पृथ्वी तल में कोई नहीं, यदि है तो तू कह ! माता ने जवाब दिया
राजन्! तेरा पुत्र में क्या अधिक मोह है ? सबका मोह तीनों लोक में बालकों पर ऐसा ही होता है। देख !!! यद्यपि तेरे पिता के अभय कुमार आदि अनेक उत्तमोत्तम पुत्र थे। तो भी बाल्य अवस्था में पिता का प्यारा और मान्य तू था वैसा कोई नहीं था। प्यारे पुत्र ! तेरे पिता का तुझमें कितना अधिक स्नेह था ? सुन, मैं तुझे सुनाती हूँ--
एक समय तेरी अंगुली में बड़ा भारी घाव हो गया था उसमें पीप पड़ गया था। बहुत दुर्गन्ध आती थी। जिससे तुझे बहुत पीड़ा थी। घाव के अच्छे करने के लिए बहुत-सी दवाइयाँ कर छोड़ी तो भी तेरी वेदना शांत न हुई। उस तेरे मोह से तेरे पिता ने अपने मुख में अंगुली दे दी और तेरो सब पीड़ा दूर कर दी। माता चेलना की यह बात सुन दुष्ट कुणक ने जवाब दिया--
माता ! यदि पिता का मुझमें मोह अधिक था तो जिस समय मैं पैदा हुआ था उस समय पिता ने मुझे निर्जन वन में क्यों फिंकवा दिया था? माता ने जवाब दिया
प्रिय पुत्र! तू निश्चय समझ तेरे पिता ने तुझे वन में नहीं फिकवाया था किंतु तेरी भृकुटी भयंकर देख मैंने फिकवाया था। तेरा पिता तो तुझे वन से ले आया, राजा बनाने के लिए सानंद तेरा पालन-पोषण किया था। यदि तेरा पिता ऐसा काम न करता तो तुझे राज्य क्यों देता? पुत्र तेरे पिता का तुझमें बड़ा स्नेह, बड़ा मोह और बड़ी भारी प्रीति थी। तुझसे वे अनेक आशा भी रखते थे। इसमें जरा भी झूठ नहीं। जैसी वेदना इस समय तू अपने पिता को दे रहा है 'याद रख' तेरा पुत्र भी तुझे वैसी ही देदना देगा। खेत में जैसा बीज बोया जाता है वैसा ही फल काटा जाता है। उसी प्रकार जैसा काम किया जाता है फल भी उसी के अनुसार भोगना पड़ता है॥७१-६८।।
इति संबोधितो मात्रा विषण्णो हृदये क्षणं । निंदयन्स्वकृतंकर्मतताम कुलिशाहतः ।। ६६ ।। अहो ! नियंकृतंकर्मकथं मोक्ष्यामिपापधीः । इदानीं जनकं रम्यं मोक्षामि हितकारकं ॥१०॥ यावन्मोचयितुंयाति विचार्येति तनद्भवः । तावत्तं श्रेणिकः प्रेक्षे गच्छतं वक्रवक्रकं ।।१०१।। दध्यौतदा नृपश्चित्ते करालास्यं निरूप्यतम् । चिकीषितुं किमत्राहो समागच्छति मूढधी: ।।१०२॥
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