Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 358
________________ श्रेणिक पुराणम् वर्षाणि भुंक् Jain Education International चतुरशीतिसहस्रकाणि, वै समाद्यनरये स च सच्छेद्यभेद्यदलनादिभवं स क्षायिक: क्षितशरीर दुःखवृदं । विभीतं, सुसातभागः ॥ १४८ ॥ संसार में न तो पिता का स्नेह पुत्र में है और न पुत्र का स्नेह पिता में है । समस्त जीव स्वेच्छाचारी हैं और जब तक स्वार्थ रहता है तभी तक आपस में स्नेह करते हैं । संसार में संपत्ति यौवन और ऐन्द्रियक सुख भी अस्थिर है । भोग ज्यों-ज्यों भोगे जाते हैं उनसे तृप्ति तो बिलकुल नहीं होती किंतु काष्ठ से अग्निज्वाला जैसी बढ़ती चली जाती है उसी प्रकार भोग भोगने से और भी अभिलाषा बढ़ती ही चली जाती है । कदाचित् ! तेल से अग्नि की और जल से समुद्र की तृप्ति हो जाये किंतु इन्द्रिय भोग भोगने से मनुष्य की कदापि तृप्ति नहीं हो सकती । अनेक बड़ेबड़े पुरुष पहले धन-परिवार का त्याग कर गये । अब जा रहे हैं और जायेंगे। मैं केवल पुत्र के मोह से मोहित हो घर में ( महल में) कैसे रहूँ ? विषय भोग से जीव निरन्तर पाप का उपार्जन करते रहते हैं और उस पाप की कृपा से उन्हें नियम से नरक जाना पड़ता है । हजार कंटकों के धारक प्राणी के स्पर्श से जैसा दुःख होता है उससे भी अधिक जीवों को नरक में दुःख भोगना पड़ता है । संसार में जो स्त्रियाँ दूसरे मनुष्यों की अभिलाषा करती हैं नियम से उन्हें पूर्व पापोदय से लोहे की तप्त पुतलियों से चिपकाया जाता है । जो मनुष्य पर स्त्रियों के साथ विषय भोगते हैं उन्हें नरक में स्त्री के आकार की तप्त पुतलियों के साथ आलिंगन कराया जाता है । जो मूर्ख यहाँ शराब गटकते हैं हाहाकार करते हुए भी उन मनुष्यों को जबरन लोह पिघलाकर पिलाया जाता है। जो यहाँ बिना छने जल में स्नान करते हैं नारकी उन्हें तप्त तेल की कढ़ाइयों में जबरन स्नान कराते हैं । जो पापी मोहवश यहाँ पर स्त्रियों के स्तन मर्दन करते हैं । नारकी उन्हें मर्मघाती अनेक शस्त्रों से पीड़ा देते हैं। नरकों में अनेक नारकी आपस में लड़ते हैं । अनेक पैने हथियारों से और नखों से छिन्न-भिन्न होते हैं । अनेक अग्नि में डालकर मारे जाते हैं। और आपस में अनेक पीड़ा सहते हैं । नरक में रात-दिन भवनवासी देव भिड़ाते हैं इसलिए एक नारकी दूसरे नारकी को आपस में बुरी तरह मारता है । मुष्ठियों से पीस देता है । इस रीति से नारकी सदा पूर्वपापोदय से नरकों में दुःख भोगते रहते हैं । नरक में जीवितपर्यंत क्षणभर भी सुख नहीं मिलता किंतु तीव्र दुःख का ही सामना करना पड़ता है । तिर्यंचों में भी हमेशा बात ठंडी घाम का दुःख रहता है । बिचारे तिर्यंचों पर अधिक बोझ लादा जाता है। उन्हें भूख-प्यास से वंचित रखा जाता है जिससे तिर्यंचों को असह्य वेदना भोगनी पड़ती है। आपस में भी तिर्यंच एक-दूसरे को दुःख दिया करते हैं। मनुष्यों द्वारा भी वे अनेक दुःख भोगते हैं । एवं जब एक बलवान तिर्थंक दूसरे निर्बल तिर्यंच को पकड़कर खा जाता है । तब भी उन्हें अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं । मनुष्यभव में भी जब मनुष्यों के माता-पिता, पुत्र, मित्र मर जाते हैं उस समय उन्हें अधिक दुःख होता है । धनाभाव दरिद्रता सेवा आदि से भी अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं । देवगति में भी अनेक प्रकार मानसिक दुःख होते हैं । मरणकाल में भी माला सूख जाने से और देवांगना के वियोग से भी देवों को अनेक दुःख भोगने पडते हैं । दृष्ट देवों द्वारा भी अनेक दुःख सहने पड़ते हैं । ३४५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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