Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 345
________________ ३३२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् उत्पाद्यकेवलं लोके विकाश्व सुकृतं भुवि । चिरं विहृत्य निर्वाणं प्राप्तवान् शाश्वतं स च ।। ४८ ।। अन्ये यथायथंजग्मुर्योगिनो योगयंत्रिताः । गतिनाकादिकां रम्यां स्वस्वकर्मविपाकतः ॥ ४६॥ पूज्य पिताजी ! संसार में जितने भी उत्तमोत्तम सुख मिलते हैं वे तप की कृपा से मिलते हैं ऐसे बड़े-बड़े पुरुषों के कथन हैं। आपने जो यह कहा कि तप चौथे वय में धारण करना चाहिए सो चौथेपन में शरीर तप के योग्य रहता ही कहाँ है ? उस समय तो शरीर मन्द पड़ जाता है । इंद्रियाँ भी शिथिल पड़ जाती हैं। इसलिए स्वस्थ अवस्था में ही तप महापुरुषों द्वारा योग्य माना गया है। महनीय पिताजी! रूप लावण्य आदि क्षणिक हैं, निस्सार हैं । गृहादिक में संलग्न जो बुद्धि है सो मिथ्या बुद्धि है और असार है। कृपानाथ ! यह राज्य भी विशानीक है मैं कदापि इस राज्य को स्वीकार न करूंगा किंतु समस्त पापों से रहित मैं निश्चय तप धारण करूँगा। मैंने अनेक बार इस राज्य का भोग किया है मेरे सामने यह राज्य अपूर्व नहीं हो सकता। अक्षय सुख मोक्ष सुख ही मेरे लिए अपूर्व है। पूज्यवर ! मैंने आपकी आज्ञा का भी अच्छी तरह पालन किया है। अब मैं भविष्यकाल में आपकी आज्ञा पालन न कर सकूँगा इसलिये आप कृपाकर मुझे तप के लिए आज्ञा प्रदान करें। पुत्र को तप के लिए उद्यमी देख महाराज श्रेणिक की आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। तथापि अभय कुमार उन्हें अच्छी तरह समझाकर अपनी माता को भी सम्बोधन कर और अतिशय मनोहरांगी अपनी प्रिय स्त्रियों को भी समझाकर शीघ्र ही राजमहल से निकले और राजा आदि के रोके जाने पर भी गजकुमार आदि के साथ हाथी पर सवार हो विपुलाचल की ओर चल दिये। उस समय विपुलाचल पर महावीर भगवान का समवशरण विराजमान था इसलिए ज्यों ही अभय कुमार विपुलाचल के पास पहुँचे उन्होंने राजचिह्न छोड़ दिये गज से उतर शीघ्र ही समवशरण में प्रवेश किया। समवशरण में विराजमान महावीर भगवान को देख तीन प्रदक्षिणा दीं, पूजन, नमस्कार और स्तुति की। गौतम गणधर को भी प्रणाम किया और दीक्षार्थ प्रार्थना की । वस्त्र-भूषण आदि का त्याग कर बहुत से कुटुंबियों के साथ शीघ्रही परम तप धारण किया। तेरह प्रकार का चरित्र पालने लगे एवं ध्यानकतान मुक्ति के अभिलाषी वे परमपद की आराधना करने लगे। जो अभय कुमार आदि महापुरुष अनेक कोमल-कोमल वस्त्रों से शोभित हंसों के समान स्वच्छ रुई से बने मनोहर पलंगों पर सोते थे वे ही अब कंकरीली जमीन पर सोने लगे। जो शीतकाल में मनोहर-मनोहर महलों में कामविह्वला रमणियों के साथ सानन्द शयन करने वाले थे वे चौतर्फा अतिशय शीतल पवन से व्याप्त नदी के तीरों पर सोते हैं। ग्रीष्मकाल में जो शरीर पर हरिचंदन का लेप करा फुवारा सहित महलों के रहने वाले थे वे ही अब अतिशय तीक्ष्ण सूर्य के आतप को झेलते हुए पर्वतों की शिखरों पर निवास करते हैं। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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