Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् गंगा शीता प्रमुख सुजलैश्चंद्रमध्यः सुभक्त्या, संस्नाप्योच्चैः कनककलिते विष्टरे रोपयित्वा । वस्त्राभूषा कुसुमगिवहैः पूजयित्वा प्रकथ्य, देवाधीशप्रकृतसुनुतिं दंपती तौ सुरौ च ॥११७॥ वारंवारं प्रगुण सुगणदर्शनात्संप्रणुत्य, मुक्त्वा पुष्पप्रचयरचनांव्योमतो वाद्यनादात् । कृत्वा स्वर्ग सुगुणविदितं प्रापतुस्तद्गुणांश्च, चित्ते कृत्वा प्रमदभरकः पूर्ण सर्वांगगात्रौ ॥११॥ दर्शनात्सुर वरैः कृतं परं पूजनं, परमतोषदायकं
दर्शनात्त्रिदशनाथ संस्तुतिर्जायते जगति देहिनां सदा ॥११॥
वेषधारी इस मुनि को मैंने वास्तविक मुनि जान नमस्कार किया है इससे मेरे दर्शन में कदापि अतिचार नहीं आ सकता किंतु चारित्र में अतिचार आता है सो चारित्र मेरे नहीं हैं इसलिए इनको नमस्कार करने पर भी कोई दोष नहीं। महाराज श्रेणिक का ऐसा पांडित्य देख और इन्द्र द्वारा की हुई प्रशंसा को वास्तविक प्रशंसा जान वे दोनों देव अति आनंदित हुए। अपना रूप बदल उन्होंने शीघ्र ही आनन्दपूर्वक रानी चेलना और महाराजा श्रेणिक के चरणों को नमस्कार किया। सुवर्ण सिंहासन पर बैठाकर दोनों देवों ने भक्तिपूर्वक गंगा, सीता आदि नदियों के निर्मल जल से राजा रानी को स्नान कराया, वस्त्र-भूषण फलों से प्रशंसापूर्वक उनकी पूजा की। अनेक अन्याय गुण और सम्यग्दर्शन से शोभित उन दोनों दंपती को नमस्कार कर आकाश में पुष्प-वर्षा के साथ वाद्यनादों को कर अतिशय हर्षित और राजा रानी के गुणों में दत्तचित्त वे दोनों देव कीर्तिभाजन बने । सो ठीक ही है सम्यग्दर्शन की कृपा से सम्यग्दृष्टियों की बड़े-बड़े देव परम सन्तोष देने वाली पूजा करते हैं और संसार में सम्यग्दर्शन की कृपा से इन्द्रों द्वारा प्रशंसा भी मिलती है ॥११४.११६॥
इति श्रेणिकभवानुबयभविष्यत्पद्मनाभपुराणे श्रेणिकस्य भट्टारक श्री शुभचंद्राचार्य विरचिते
देवातिशय प्राप्तिवर्णनं नाम त्रयोदशः सर्गः ॥१३॥
इस प्रकार पद्मनाभ तीर्थंकर के पूर्वभव के जीव महाराज श्रेणिक के
चरित्र में भद्रारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित देव द्वारा अतिशय प्राप्ति-वर्णन करनेवाला
तेरहवां सर्ग समाप्त हुआ।
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