Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रेणिक पुराणम्
२७३
बालक ने अपना सिर टटोला उसे एक तृण दिखाई दिया। तथा तुण देख वह मायाचारी बालक ब्राह्मण से इस प्रकार कहने लगा
गुरो ! चलते समय कुम्हार के छप्पर का यह तृण मेरे लिपटा चला आया है। मैं इसे वहाँ पर पहुँचाना चाहता हूँ। उत्तम किंतु कुलीन मनुष्यों को पर-द्रव्य ग्रहण करना महापाप है। मैं बिना दिये पर-पदार्थ-जन्य पाप को सहन नहीं कर सकता कृपाकर आप मुझे आज्ञा दें मैं शीघ्र लौटकर आता हूँ। तथा ऐसा कहता-कहता चल भी दिया। ब्राह्मण ने जब देखा बटुक चला गया तो वह भी आगे किसी नगर में जाकर ठहर गया। उसने किसी ब्राह्मण के घर भोजन किया एवं उस ब्राह्मण को अपने शिष्य के लिए भोजन रख छोड़ने की भी आज्ञा दे दी।
कुछ समय पश्चात ढूंढ़ता-ढूंढ़ता वह बालक भी सोम शर्मा के पास आ पहुँचा । आते ही उसने विनय से सोम शर्मा को नमस्कार किया और सोम शर्मा की आज्ञानुसार वह भोजन करके चल दिया। वह बटुक चित का अति कटुक था इसलिए ज्यों ही वह थोड़ी दूर पहुँचा तत्काल उसने ब्राह्मण का धन लेने के लिए बहाना बनाया और पीछे लौटकर इस प्रकार विनयपूर्वक निवेदन करने लगा।
प्रभो ! मार्ग में कुत्ते अधिक हैं। मुझे देखते ही वे भौंकते हैं। शायद वे मुझे काट खांय इसलिए मैं नहीं जाना चाहता फिर कभी देखा जायेगा। किंतु वह ब्राह्मण परम दयाल था उसे उस पर दया आ गई इसलिए उसने अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी और जिसमें सोना रख छोड़ा था वह लकड़ी शीघ्र उसे दे दी और जाने के लिए प्रेरणा भी की।
बस फिर क्या था? बालक की निगाह तो उस लकड़ी पर ही थी। संग भी वह उसी लकड़ी के लिए लगा था इसलिए ज्यों ही उसके हाथ लकड़ी आई वह हमेशा के लिए ब्राह्मण से बिदा हो गया फिर वृद्ध ब्राह्मण की ओर उसने झाँककर भी न देखा।
कृपानाथ। आप ही कहें वृद्ध परमोपकारी उस ब्राह्मण के साथ क्या उस बालक का वह बर्ताव योग्य था? मैंने कहा
जिनदत्त ! सर्वथा अयोग्य । उस बालक को कदापि सोम शर्मा ब्राह्मण के साथ वैसा बर्ताव नहीं करना चाहिये था अस्तु अब मैं भी तुम्हें एक अतिशय उत्तम कथा सुनाता हूँ तुम ध्यानपूर्वक सुनो ॥२६५-३११।।
कौशांब्यां स्वर्णशालायां गंधर्वानीकभूपतिः । तस्य वाडिधा मांगार देव नामा वसेत्सुखी ॥३१२॥ स चैकदा मुदा राजकीयं रत्नं मनोहरम् । पद्मरागसुसंस्कारकृते धाम्न्या निनाय च ।।३१३॥
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