Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रेणिक पुराणम्
लेपस्थालाभतो योग्यन्येषां धाम्नि विष्णुधानि समापन्नो जेमनं
गतस्ततः । विधिपूर्वकं ॥ ३३८ ॥
रत्नका पिष्टपिंडानि रुक्मिणी निभानवे । ददौ सुभेषजं चान्यद्भक्तिभारभरांगिका ॥ ३३६ ॥ ततः क्रमेण नीरोगोऽजनि योगी कियद्दिनः । एकदा माधवो वीक्ष्य भिषजामुनिभाजगे ॥ ३४० ॥ नीरोगत्वं मुनेर्जातं तदा प्राख्यत्तपः श्रितः । कर्मणामभवन्विष्ठो नीरोग: शमनान्मम ॥३४१ ॥ कर्मणामुदये राजन् शर्माऽशर्माणि देहिनां । जायंते तत्क्षये मोक्षस्तत्र नास्तिसुखासुखं ।। ३४२॥ दक्षश्चक्रवर्त्त्यपि ।
अंतरंगविधौ कोऽपि न बहिर्निमित्तमात्रं भो अन्यन्नाभ्यंतरे विधौ ॥ ३४३ ॥ तत्सूक्ति स समाकर्ण्य दुष्टो वैद्यस्तु क्रुद्धवान् । मन्यमानः स्वनैरर्थ्यं वृष्टि लिंबे क्षुवन्नृपः ॥ ३४४॥ कोपादुद्ध तदुर्भावो द्वितीयायुबंबंध च । कालेन स मृति चाप्य वने कीशोऽभवद्विधेः ॥ ३४५।।
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इसी पृथ्वीतल में अनेक उत्तमोत्तम घरों से शोभित, देव-तुल्य मनुष्यों से व्याप्त, एक पलाशकूट नाम का सर्वोत्तम नगर है । किसी समय पलाशकूट नगर में कोई रौद्रदत्त नाम का ब्राह्मण निवास करता था । कदाचित् किसी कार्यवश रौद्रदत्त को एक विशाल वन में जाना पड़ा। यह वन में पहुँचा ही था कि एक गेंडा उसकी ओर टूटा। उस समय रौद्रदत्त को और तो कोई उपाय न सूझा समीप में एक विशाल वृक्ष खड़ा था उसी पर वह चढ़ गया। जिस समय गेंड़ा उस वृक्ष के पास आया तो वह शिकार का मिलना कठिन समझ वहाँ से चल दिया । अपने विघ्न को शांत देख रौद्रदत्त भी नीचे उतर गया । वह वृक्ष अति मनोहर था। उसकी हर एक लकड़ी बड़े पायेदार थी । इसलिए उसे देख रौद्रदत्त के मुख से पानी आ गया । वह यह निश्चय कर कि इसकी लकड़ी अन्यतम है इसकी स्तम्भ आदि कोई चीज बनवानी चाहिए। शीघ्र ही वह घर गया। हाथ में फरसा ले वह फिर वन को चला गया और बात की बात में वह वृक्ष काट डाला । कृपानाथ ! आप ही कहें क्या आपत्तिकाल में रक्षा करनेवाले उस वृक्ष का काटना रौद्रदत्त के लिए योग्य था ? मैंने कहा
जिनदत्त ! सर्वथा अयोग्य था । रौद्रदत्त को कदापि वह वृक्ष काटना नहीं चाहिये था जो मनुष्य पर कृत उपकार को नहीं मानते वे निरन्तर पापी माने जाते हैं, कृतघ्नी मनुष्यों को संसार
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