Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 317
________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् __ अजीव तत्व के पांच भेद हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल। उनमें धर्म द्रव्य असंख्यात प्रदेशी जीव और पुद्गल के गमन में कारण, एक, अपूर्व और सत्ता रूप द्रव्य लक्षणयुक्त है । अधर्म द्रव्य भी वैसा ही है किन्तु इतना विशेष है कि यह स्थिति में सहकारी है। आकाश के दो भेद हैं-एक लोकाकाश दूसरा अलोकाकाश। लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है। और अलोकाकाश अनंत प्रदेशी है । लोकाकाश सब द्रव्यों को घर से समान अवगाह दान देने में सहायक है। काल द्रव्य भी असंख्यात प्रदेशी एक और द्रव्य लक्षणयुक्त है। यह रत्नों की राशि के समान व लोकाकाश में व्याप्त है। और समस्त द्रव्यों के वर्तना परिणाम में कारण है। कर्म वर्गणा, आहार वर्गणा आदि के भेद से पुद्गल द्रव्य अनन्त प्रकार का है। और यह शरीर और इन्द्रिय आदि की रचना में सहकारी कारण है। आश्रव दो प्रकार है द्रव्याश्रव और भावाश्रव। दोनों ही प्रकार के आवक के कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, आदि हैं। जीव के विभाव परिणामों से बन्ध होता है। और उसके चार भेद हैं-प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध। आश्रव का रुकना संवर है। संवर के भी दो भेद हैं-द्रव्य संवर और भाव संवर। और इन दोनों ही प्रकार के संवरों के कारण गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा आदि हैं। निर्जरा दो प्रकार की है-सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा। सविपाक निर्जरा साधारण और अविपाक निर्जरा तप के प्रभाव से होती है। द्रव्य मोक्ष और भाव मोक्ष के भेद से मोक्ष भी दो प्रकार का कहा गया है। और समस्त कर्मों से रहित हो जाना मोक्ष है। मगधेश ! यदि इन्हीं तत्वों के साथ पुण्य और पाप जोड़ दिये जाएँ तो ये ही नव पदार्थ कहलाते हैं। इस प्रकार पदार्थों के स्वरूप वर्णन के अनंतर भगवान ने श्रावक मुनि धर्म का भी वर्णन किया। महाराज श्रेणिक के प्रश्न से भगवान ने सठि शलाका पुरुषों के चरित्र का भी वर्णन किया। जिससे महाराज श्रेणिक के चित्त में जो जैन धर्म विषयक अंधकार था शीघ्र ही निकल गया। जब महाराज श्रेणिक भगवान की दिव्य ध्वनि से उपदेश सुन चुके तो अतिशय विशुद्ध मन से राजा श्रेणिक ने गौतम गणधर को नमस्कार किया और विनय से इस प्रकार निवेदन करने लगे॥१२०-१५॥ निशम्येति तदा वाचः प्रणत्य गणनायकं । विशुद्धमनसा भूपः पप्रच्छ मुनिगौतमं ॥१५६।। भगवन् मे मते जैने महती मतिरुत्तमा । पुराणश्रवणात् श्रद्धा बभूव भवभंजिका ।।१५७॥ तथापि मे गणाधीश ! न स्याव्रतपरिग्रहः । कथं कथय योगींद्र तत्स्मयो मम मानसे ॥१५८।। इति श्रेणिकसंप्रश्नावाच गणनायकः । भोग संसर्गतो गाढ मिथ्यात्वोदयतस्तथा ।।१५६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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