Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 310
________________ श्रेणिक पुराणम् सफलति जिनस्याग्रे फलैस्ते पुष्पांजलि दुदुस्तस्मै सफलांशुभिः । विपापिने ॥ ६६ ॥ नरेंद्राद्या Jain Education International प्रभो ! इस समय नौले आनन्द से सर्पों के साथ त्रीड़ा कर रहे हैं। बिल्ली के बच्चे वैररहित मूसों के साथ खेल रहे हैं । अपना पुत्र समझ हथिनी सिंहनी के बच्चों को आनन्द से दूध पिला रही है और सिंहनी हथिनियों के बच्चों को प्रेम से दूध पिला रही है । प्रजापालक ! समवसरण के प्रताप से समस्त जीव वैर-रहित हो गये हैं । मयूरगण सर्पों के मस्तकों पर आनन्द से नृत्य कर रहे हैं । विशेष कहाँ तक कहा जाय समय नहीं सम्भव भी काम बड़े-बड़े देवों से सेवित महावीर भगवान की कृपा से हो रहे हैं । माली के इस प्रकार अचित्य प्रभावशाली भगवान महावीर का आगमन सुन मारे आनन्द के महाराज का शरीर रोमांचित हो गया । २६७ उदयादि से जैसा सूर्य उदित होता है महाराज भी उसी प्रकार शीघ्र ही सिंहासन से उठ पड़े। जिस दिशा में भगवान का समवसरण आया था उस दिशा की ओर सात पैंड़ चलकर भगवान को परोक्ष नमस्कार किया । उस समय जितने उनके शरीर पर कीमती भूषण और वस्त्र थे तत्काल उन्हें माली को दे दिया धन आदि देकर भी माली को सन्तुष्ट किया। समस्त जीवों की रक्षा करने वाले महाराज ने समस्त नगर निवासियों को जानकारी के लिए बड़ी भक्ति और आनन्द से नगर में ड्योढ़ी पिटवा दी । ड्योढ़ी की आवाज सुनते ही नगर निवासी शीघ्र ही राजमहल के आँगन में आ गये उनमें अनेक तो घोड़ों पर सवार थे अनेक हाथी पर और अनेक रथों पर बैठे थे । सब नगर निवासियों के एक चित्त होते ही रानी पुरवासी राजा सामंत और मंत्रियों से वेष्ठित महाराज शीघ्र ही भगवान की पूजार्थ वन की ओर चल दिये । मार्ग में घोड़े आदि के पैरों से जो धूल उठती थी वह हाथियों के मद जाल से शांत हो जाती थी । 1 उस समय जीवों के कोलाहलों से समस्त आकाश व्याप्त था इसलिए कोई किसी की बात तक भी नहीं सुन सकता था । यदि किसी को किसी से कुछ कहना होता था तो वह उसकी मुँह की ओर देखता था । और बड़े कष्ट से इशारे से अपना तात्पर्य उसे समझाता था । उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो बाजों के शब्दों से सेना दिस्त्रियों को बुला रही है । उस समय सबों का चित्त कर्म विजयी भगवान महावीर में लगा था । और छत्तों का तेज सूर्य तेज को भी फीका कर रहा था । इस प्रकार चलते-चलते महाराज समवसरण के समीप जा पहुँचे । समवसरण को देख महाराज शीघ्र ही गज से उतर पड़े। मानस्तम्भ और प्रातिहार्यों की अपूर्व शोभा देखते हुए समवसरण में प्रवेश किये । वहाँ जिनेन्द्र महावीर को विशाल किंतु मनोहर सिंहासन पर विराजमान देख भक्तिपूर्वक नमस्कार किया एवं मंत्रपूर्वक पूजा करना प्रारम्भ कर दिया। सबसे प्रथम महाराज ने क्षीरोदधि के समान उत्तम और चन्द्रमा के समान निर्मल जल से प्रभु की पूजा की। पश्चात् चारों दिशा में महकने वाले चन्दन से और अखंड तंदुल से जिनेन्द्र देव की पूजा की । कामबाण के विनाशार्थ उत्तमोत्तम चंपा आदि पुष्प और क्षुधा रोग विनाशार्थं उत्तमोत्तम स्वादिष्ट पकवान चढ़ाये । समस्त दिशा में प्रकाश करने वाले रत्नमयी दीपकों से और उत्तम धूप से भी भगवान का पूजन किया । एवं मोक्ष फल की प्राप्ति के लिए उत्तमोत्तम फल और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386