Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
उठा लेती हैं तो उसे तत्काल कर डालती हैं। और अपने कटाक्षपातों से बड़े-बड़े वीरों को भी अपना दास बना लेती हैं। चाहे अतिशय उष्ण भी अग्नि शीतल हो जाय शीतल भी चन्द्रमा उष्ण हो जाय। पूर्व दिशा में उदित होने वाला सूर्य भी पश्चिम दिशा में उदित हो जाय किंतु स्त्रियाँ झूठ छोड़ कभी भी सत्य नहीं बोल सकतीं। हाय ! जिस समय ये दुष्ट स्त्रियाँ पुरुष में आशक्त हो जाती हैं उस समय अपनी प्यारी माता को छोड़ देती हैं। प्राण प्यारे पुत्र की भी परवा नहीं करतीं परम स्नेही कुटुंबीजनों का भी लिहाज नहीं करतीं। विशेष कहाँ तक कहा जाय अपनी प्यारी जन्मभूमि को छोड़ परदेश में भी रहना स्वीकार कर लेती हैं। ये नीच स्त्रियाँ अपने उत्तम कुल को भी कलंकित बना देती हैं। पति आदि से नाराज हो मरने का भी साहस कर लेती हैं। और दूसरों के प्राण लेने में भी जरा नहीं चूकतीं। अहा !!! जिन योगीश्वरों ने स्त्रियों की वास्तविक दशा विचार कर उनसे सर्वथा के लिये सम्बन्ध छोड़ दिया है। स्त्रियों की बात भी जिनके लिये हलाहल विष है वे योगीश्वर धन्य हैं। और वास्तविक आत्मस्वरूप के जानकार हैं। हाय !!! ये स्त्रियाँ छल-कपट दगाबाजी की खान हैं। विश्वास के अयोग्य हैं। चौतर्फा इनके शरीर में कामदेव व्याप्त रहता है। मोक्ष द्वार के रोकने में ये अर्गल (बेड़ा) हैं। स्वर्ग मार्ग को भी रोकने वाली हैं। नरकादि गतियों में ले जाने वाली हैं दुष्कर्म करने में बड़ी साहसी हैं। इत्यादि अपने मन में संकल्प विकल्प करता-करता वह भद्र नाम का बैल वहीं रहने लगा ॥२४३-२६४॥
इति संचित्यमानोऽसौ यावदास्ते वणिग्वर । जिनदत्तोऽथ तत्रास्ति जायातस्य जिने मतिः ॥२६।। जिनधर्मापरा चारा सुशीला सुव्रता शुभा । दानपूजन सन्मार्गरक्ता सक्ता निजे धवे ॥२६६।। अशभोदयतस्तया जनैः परनरोद्भवः ।। दोषो दत्तस्तदा सापि व्याकुलीभूतमानसा ॥२६७॥ आत्मशुद्धिकृते दिव्यगृहे तप्तसुफालकं । धारणार्थं स्थिता तावद्भद्रस्तत्र समाटितः ॥२६८॥ तप्तायः पिंडमाकृष्य दंतैर्जग्रास भद्रकः । स्वशुद्धिं दर्शयल्लोकान् शुद्धोऽभूद्बुद्धमानसः ॥२६६ ।। तदा लोकविशुद्धात्मा विज्ञायि सविशेषतः । पुनर्जयार वंचक्रुः सर्वे निश्चितमानसाः ॥२७०।। सापि शुद्धा पुनर्जज्ञे तप्तायः फलसंग्रहात् । अन्यस्य दूषणेऽन्यस्य दोषो नोयुक्त एव भोः ॥२७१।।
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