Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
अहो क्व मे गतं वित्तं तस्करः कोऽत्र संगतः । केनारक्षिमभ प्राण प्रख्यं रक्षं सुयत्नतः ॥१६०॥ निक्षिप्तमत्र रक्षार्थमतोपि गतमीक्ष्यते । भुनक्ति कर्कटी वृत्तिर्यदि किं रक्ष्यतेऽन्यतः ॥१६१॥ अहो वृत्तं दुरंतं हि गृहीतं मुनिपुंगवैः । भविष्यति न वा चित्ते तर्कयच्चेति मूढधीः ॥१६२॥ व्यावर्त्तनकृतेश्रेष्ठी मुने राजन् समूढधीः । भृत्यान्प्रस्थापयामास काष्टासु निखिलासु च ॥१६३।। एकस्मिन्नयने श्रेष्ठी स्वयं वीक्षणहेतवे। आट तत्कपटं चित्ते मन्यमानो मुहुर्मुहुः ॥१६४॥ अटतं मुनिराजं तं निःशकं गिरि वत्स्थिरं । वीक्ष्यागत्य प्रणम्याशु वचनं स व्यलीलपत् ॥१६५।।
राजन् श्रेणिक ! इधर तो मैं निरोग हुआ और उधर वर्षाकाल भी आ गया। उस समय आनंद से वृष्टि होने लगी जहाँ-तहाँ बिजली चमकने लगी। एवं प्रत्येक दिशा में मेघध्वनि सुनाई पड़ी। उस समय हरित वनस्पति से आच्छादित जल-बूंदों से व्याप्त, पृथ्वी अति मनोहर नजर आने लगी। जैसे हरित कांतमणि पर जड़े हुए सफेद मोती शोभित होते हैं वैसे हरी वनस्पति पर स्थित जल-बूंदें उस समय ठीक वैसी ही शोभा को धारण करती थीं। उस समय चारों ओर आनंद शब्द करते थे। विरहिणी कामनियों के लिए वह मेघमाला जलती हुई अग्नि ज्वाला के समान थी। और अपनी प्राणवल्लभा के अधरामृत पान के लोलुपी, क्षण-भर भी उसके विरह को सहन न करने वाले कामनियों के मार्ग को रोकने वाली थी। जिस समय विरहिणी स्त्रियाँ अपने-अपने घोसलों में आनंदपूर्वक प्रेमालिंगन करते हुए बगली बगलों को देखती थी उन्हें परम दुःख होता था। वे अपने मन में ऐसा विचार करती थी। हाय !!! यह पति विरह दुःख हम पर कहाँ से टूट पड़ा। क्या यह दुःख हमारे ही लिए था? हम कैसे इस दुःख को सहन करें। इस प्रकार जीवों को स्वभाव से ही सख-दुःख के देने वाले वर्षाकाल के आ जाने से जिनदत्त आदि ने चातर्मास के लिए मुझे उस नगर में ही रहने के लिए आग्रह किया इसलिए मैं वही रह गया एवं ध्यान में दत्तचित्त जीवों को उत्तम मार्ग का उपदेश देता हुआ मैं सुखपूर्वक जिनदत्त के घर में रहने लगा।
सेठ जिनदत्त का पुत्र जो कि अति व्यसनी और दुर्थ्यांनी कुबेरदत्त था। कुबेरदत्त से जिनदत्त धन आदि के विषय से सदा शंकित रहता था। कदाचित् सेठ जिनदत्त ने एक तांबे के घड़े को रत्नों से भरकर और मेरे सिंहासन के नीचे एक गहरा गड्ढा खोदकर चुपचाप रख दिया किंतु घड़ा रखते समय कुबेरदत्त मेरे सिंहासन के नीचे छिपा था इसलिए उसने यह सब दश्य देख
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