Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रोशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
बस, फिर क्या था? राजन् ! ज्योंही राजा चंडप्रद्योतन ने रानी वसुकांता के वचन सुने मारे हर्ष के उसका कंठ गद्गद हो गया। कुछ समय पहले जो उसके हृदय में मेरे विषय में कालुष्य बैठा था, तत्काल वह निकल भागा। दोनों दंपती ने मुझे भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। एवं वे दोनों दंपती तो कौशांबीपुरी में आनंदानुभव करने लगे। और मुझे उसी कारण से आजतक वचन गुप्ति न प्राप्त हुई ॥१६६-१८६॥
राजस्त्रिगुप्तिगुप्तानामवधिज्ञानमुत्तमं । जायते नान्यथा भूप तृतीयादिकवेदनं ॥१६०॥ वाग्गोपनं स्थितं मे नत्तदा जानाहिभूपते । वाग्गुप्ति वंचिता नूनं वयं गुप्तिद्वयावृताः ।।१६१।। चित्तगुप्तिरिति निः मृत्ताक्षिता दुर्द्धरा
कृतविकल्पवारणात् । रक्षितुं न हि समर्थतां गता
योगिने जितमदाश्च तां परां ॥१६२॥ दुर्द्धरं जगति मानसं मतं
भ्रामितं प्रबलमोहकर्मणा । चिंतयद्बहु शुभेतरं सदा कुर्वतां
स्ववशमेव योगिनः ॥१६३॥ वाग्गोपनं ये यतिपुंगवाः सदा प्रकुर्वते
ते शिव धामसंपदः । लभंति वाग्वर्गणया समागता
स्वकर्मराशीनवरुंधयत्यपि ॥१९४॥ त्रिगुप्तिगुप्ता भुवि ये यतीश्वरा
विशुद्धिशुद्धा: स्वहितैषिणः शुभाः । सुलब्धिलुब्धा वरबोधबोधिता।
जयंतु ते जैनमतानुगामिनः ॥१६५।। श्रुत्वा गुप्तिकथां यतींद्रवदनोद्गीतां विशुद्धाक्षरः, स्यूतां स्फीतमनोऽवधानकरणी हृष्टौ च तौ दंपती । कुर्वांते मुनिमार्ग साधन कथां संसार बाधापहाम्, तच्छाते जिनवीर वक्त्रगदितां शास्त्रावबोधि मुदा ।।१६६।।
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