Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रेणिक पुराणम्
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आकर्पोति जजल्पासौ मानसं मे कथंचन । अवीविदद्विकल्पं च चिरं चित्रं २ मुनिमहान् ॥ १७ ॥ तदाऽगदीन्महाराश्यवीविदः किं न सद्यते: । ज्ञानभूतिसमस्तार्थपर्यायपदवेदिकं
॥१८ ।। का वार्ता स्वांतजा राजन् सर्वं वेत्तिभवादिकं । यतिरिच्छास्ति ते चित्ते पृच्छयस्व भवादिकं ॥ १६ ॥
मनिराज परम ज्ञानी थे, उन्होंने शीघ्र ही राजा के मन का तात्पर्य समझ लिया । एवं महाराज को सांत्वना देते हुए वे इस प्रकार कहने लगे
नरनाथ ! तुम्हें किसी प्रकार का विपरीत विचार नहीं करना चाहिए। पाप-विनाशार्थ जो तुमने आत्महत्या का विचार किया है, सो ठीक नहीं। आत्महत्या से रत्ती-भर पापों का नाश नहीं हो सकता। इस कर्म से उल्टा घोर पाप का बन्ध ही होगा। मगधेश ! अज्ञानवश जो जीव तलवार या विष आदि से अपनी आत्मा का घात कर लेते हैं। वे यद्यपि मरण के पहले समझ तो यह लेते हैं कि हमारी आमा कष्टों से मुक्त हो जायेगी। परभव में हमें सुख मिलेंगे। किंतु उनकी यह बड़ी भूल समझनी चाहिये । आत्मघात से कदापि सुख नहीं मिल सकता । आत्मघात से परिणाम सक्लेशमय हो जाते हैं। सक्लेशमय परिणामों से अशुभ बन्ध होता है और अशुभ बन्ध से नरक आदि घोर दुर्गतियों में जाना पड़ता है।
राजन् ! यदि तुम अपना हित ही करना चाहते हो तो इस अशुभ संकल्प को छोड़ो। अपनी आत्मा की निंदा करो। एवं इस पाप का शास्त्रों में जो प्रायश्चित्त लिखा है, उसे करो। विश्वास रखो पापों से मुक्त होने का यही उपाय है। आत्महत्या से पापों की शांति नहीं हो सकती।
मनिराज के ये वचन सुने तो महाराज अचम्भे में पड़ गये। वे महारानी के मुंह की ओर ताककर कहने लगे--सुन्दरी ! यह क्या बात हुई ? मुनिराज ने मेरे मन का अभिप्राय कैसे जान लिया? अहा! ये मुनि साधारण मुनि नहीं। किंतु कोई महामुनि हैं । महाराज के मुख से यह बात सुन रानी चेलना ने कहा
नाथ! हाथ की रेखा के समान समस्त पदार्थों को जाननेवाले क्या इन मुनिराज की ज्ञानविभूति को आप नहीं जानते? प्राणनाथ ! आपके मन की बात मुनिराज ने अपने परम पवित्र ज्ञान से जान ली है। आप अचंभा न करें। मुनिराज को आपके अंतरंग की बात का पता लगाना कोई कठिन बात नहीं। आपके भवांतर का हाल भी ये बता सकते हैं। यदि आपको इच्छा है तो पूछिए। आप इनके ज्ञान की अपूर्व महिमा समझे। रानी चेलना से मुनिराज के ज्ञान की यह अपूर्व महिमा सुन अब तो महाराज गद्गद कंठ हो गये। अपनी आँखों से आनंदाश्रु पोंछते हुए वे मुनिराज से इस प्रकार निवेदन करने लगे॥११-१९॥
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