Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
कर्मों का उपार्जन होता है । और कर्मों से नरकादि गतियों में घूमना पड़ता है । जन्म-मरण आदि वेदना भोगनी पड़ती है इसलिए मैंने तो उन्हें सर्वथा दुःख से छुड़ाने के लिए ऐसा किया था ।
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नरनाथ ! आप स्वयं विचार करें इसमें मैंने क्या जैन धर्म के विरुद्ध अपराध कर डाला ? प्रभो ! आपको इस बात पर ज़रा भी विषाद नहीं करना चाहिए। आप यह निश्चय समझें बौद्ध गुरुओं का वह ध्यान नहीं था । ध्यान के बहाने से भोले जीवों को ठगना था । मोक्ष कोई ऐसी सुलभ चीज नहीं जो हरेक को मिल जाय । यदि इस सरल मार्ग से मोक्ष मिल जाय तो बहुत जल्दी सर्वजीव सिद्धालय में स्थित हो जायेंगे। आप विश्वास रखें मोक्ष प्राप्ति की जो प्रक्रियाँ जिनागम में वर्णित हैं वही उत्तम और सुखप्रद हैं। नाथ ! अब आप अपने चित्त को शांत करें । और बौद्ध साधुओं को ढोंगी साधु समझें ।। १२८-१४० ।।
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प्रत्युत्तर विधौ आमर्ष
भूपोऽशक्तस्तूष्णी स्थितस्तदा । विधायाशुभपाकतः ॥ १४१॥
विविधचित्ते
ईक्षे दैवाद्गुरुं कुर्वेऽस्याः पूजां च विपर्ययाम् । इति चित्ते विधायास्थाद्गृहे भुंजन् शुभाशुभं ॥। १४२ ।।
कदाचित्सेनया साकं वने स तूर्यनादेन
मृगांत कृतेऽगमत् । कुर्वन्भुवनमाकुलम् ।।१४३॥
गूढात्मपदवेदकम् । मनोयोग प्ररुंधकं ।। १४४।
त्रियोगकं ।
शुभयोगप्ररूढं वै त्यक्ताशुभवियोगं च
मित्रशत्रुसमानत्वं मन्यमानं मुनि मुख्यत्वमापन्नमनंतगुणयोगकं
सहस्रहार्थं
शीलशालिनमुन्नतं ।
पष्णिकाय सुजीवानां रक्षकं शिक्षपक्षकं ॥ १४६ ॥
नानद्धिबुद्धिसंपन्न
सत्सप्तभंगसंरूढ
शीतातापनयोगस्थं
संदृश्य श्रेणिकोऽपृच्छन्नरं
।। १४५ ।।
भव्यार्थकृतदेशनं ।
सप्तत्वप्ररूपकं ॥ १४७॥
यशोधरयतीश्वरं ।
कंचिदितिस्फुटं ॥ १४८ ॥
कोऽयमंशुकसंत्यक्तः
स्नानसंस्कारवर्जितः ।
मुंडमूर्द्ध नेति संप्रश्ने सोऽवादीद्वेत्सि किं नवा ॥ १४९ ॥
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