Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
न तादृशो नृपोलोके जिनधर्मेण मंडितः । रूपी गुणो प्रतापी च न दृष्टो नैव दृश्यते ।। ८६ ।। यत्प्रतापेन भूपाला अन्ये वननिवासिनः । विधाय सप्तभूमांश्च गृहान् शालोपशोभितान् ॥६० ॥ अन्येषां तादृशी नैव संपत्तिः कोशसंभवा । वीतदंतिरथाकीर्णा यादृशास्य सुभूभृतः ॥ ६१॥ किमत्र बहुनोक्तेन तादृशो नरनायकः । धर्मादिगुणसत्सीमा ना भून्नास्तिसुभावुकः ॥ ६२ ॥
राजकन्याओ! यदि आपको हमारा सविस्तार हाल जानने की इच्छा है तो आप ध्यानपूर्वक सुनें, मैं कहता हूं-अनेक प्रकार के ग्राम, पुर एवं बाग-बगीचों से शोभित, ऊँचे-ऊँचे जिनमंदिरों से व्याप्त, असंख्याते मुनि एवं यतियों का अनुपम विहार, स्थान, देश तो हमारा मगध देश है। मगध देश में एक राजगृह नगर है। जो राजगृह नगर बड़े-बड़े सुवर्णमय कलशों से शोभित, अपनी ऊँचाई से आकाश को स्पर्श करनेवाले, सूर्य के समान दैदीप्यमान अनेक धनिकों के मंदिर एवं जिन-मंदिरों से व्याप्त है। और जहाँ की भूमि भाँति-भाँति के फलों से मनुष्यों के चित्त सदा आनंदित करती रहती है। उस राजगृह नगर के हम रहनेवाले हैं। राजगृह नगर के स्वामी जो नीतिपूर्वक प्रजा-पालन करनेवाले महाराज श्रेणिक हैं। राजा श्रेणिक जैन धर्म के परम भक्त हैं। अभी उनकी छोटी अवस्था है। एवं अनेक गुणों के भंडार हैं। राजकन्याओ ! हम लोग व्यापारी हैं छोटी-सी उम्र में हम चारों ओर भूमंडल घूम चुके। हरेक कला में नैपुण्य रखते हैं। हमने अनेक राजाओं को देखा किंतु जैसी जिनेन्द्र की भक्ति, रूप, गुण, तेज महाराज श्रेणिक में विद्यमान है वैसा कहीं पर नहीं। क्योंकि ऐसा तो उनका प्रताप है कि जितने भी उनके शत्रु थे सब अपने मनोहर-मनोहर नगरों को छोड़ वन में रहने लगे। कोषबल भी जैसा महाराज श्रेणिक का है शायद ही किसी का होगा। हाथी, घोड़े, पयादे आदि भी उनके समान किसी के भी नहीं। अब हम कहाँ तक कहें। धर्मात्मा, गुणी, प्रतापी जो कुछ हैं सो महाराज श्रेणिक ही हैं। कुमार के मुख से महाराज श्रेणिक को ऐसा उत्तम सुन ज्येष्ठा आदि समस्त कन्याएँ अति प्रसन्न हुई।
__ अब महाराज श्रेणिक के साथ विवाह करने के लिए हरेक का जी ललचाने लगा। कुमार की तारीफ ने कन्याओं को महाराज श्रेणिक के गुणों के परतंत्र बना दिया। अब वे चुपचाप न रह सकी। उन्होंने शीघ्र ही विनयपूर्वक कुमार से कहा- ॥८३-६२॥
प्रीता आकर्ण्य तद्वाक्यं भेणुर्विश्वासितास्तकैः । च्छद्मनान्योन्यमालोक्य तावत्राणींदुभानि च ।। ६३ ।।
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