Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् ततोऽवसरमासाद्य प्रेषयामास दूतिकाम् । वसंतो विह्वलीभूतो गतस्तापक्षुधादिकः ॥ ३० ॥ सा दूती तां समासाद्य प्रोवाच वचनैः शुभेः । भो भद्रे त्वं कथं नित्यं बलिभद्रेण तिष्ठसि ॥ ३१ ॥ कुरूपी कुत्सितः सोऽपि कर्षणोद्यत मानसः । मेनेऽहं दुर्द्धरं योगं तव तेन कुरूपिणा ॥ ३२॥ त्वत्समा सुंदरा नारी भुवने नास्ति संदरि। त्वन्नाथ सदृशो लोके कुदेही नास्ति निश्चितं ॥ ३३ ॥ अन्यस्यासदृशो नाथश्चेत्सा दूरं विहाय तं । प्रयात्यत्र कथं त्वं भो स्थास्यसि प्रमदोत्तमे ॥ ३४ ॥ ततोभद्रा वचोऽवादीत्कि करोमि सुमित्रके। साह भद्रेवसंतोऽस्ति प्रभुः परमसुंदरः ।। ३५ ॥ त्वया समं कृतस्नेहः सोऽपि मोहवशीकृतः । तेन सत्रं यथेष्टं त्वं रमयस्व सुखाप्तये ॥ ३६॥
कदाचित् अवसर पाकर वसंत ने एक चतुर दूती बुलाई। और अपनी सारी आत्मकहानी उसे कह सुनाई। एवं शीघ्र ही उसे अपना संदेशा कह भद्रा के पास भेज दिया। वसंत की आज्ञा अनुसार दूती शीघ्र ही भद्रा के पास गई। भद्रा को देख दूती ने उसके साथ प्रबल हितैषिता दिखाई। एवं मधर शब्दों में उसे इस प्रकार समझाने लगी- हे भद्रे ! संसार में तू रमणी-रत्न है। तेरे समान रूपवती स्त्री दूसरी नहीं। किन्तु खेद है, जैसी तू रूपवती, गुणवती चतुर है। वैसा ही तेरा पति कुरूपवान, निर्गुण एवं मूर्ख किसान है। प्यारी बहिन! अति कुरूप बलभद्र के साथ, मैं तेरा संयोग अच्छा नहीं समझती। मुझे विश्वास है कि बलभद्र सरीखे कुरूप पुरुष से तुझे कदापि संतोष नहीं होता होगा? तुम सरीखी सुन्दर किसी दूसरी स्त्री का यदि इतना बदसूरत पति होता तो वह कदापि उसके साथ नहीं रहती। उसे सर्वथा छोड़कर चली जाती। न मालूम तू क्यों इसके साथ अनेक क्लेश भोगती हुई रहती है ? दूती की ऐसी मीठी बोली ने भद्रा के चित्त पर पक्का असर डाल दिया। भोली भद्रा दूती की बातों में आ गई, वह दूती से कहने लगी
बहन ! मैं क्या करूँ ? स्वामी तो मुझे ऐसा ही मिला है। मेरे भाग्य में तो यही पति था। मुझे रूपवान पति मिलता कहाँ से? तथा ऐसा कह भद्रा का मुख भी कुछ म्लान हो गया।
भद्रा की ऐसी दशा देख दूती मन में अति प्रसन्न हुई। किन्तु अपनी प्रसन्नता प्रकट न कर वह भद्रा को इस प्रकार समझाने लगी-भद्रे बहन ! तू क्यों इतना व्यर्थ विवाद करती है। इसी
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