Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
नन्दिनाथ के ऐसे विनययुक्त वचन सुनने से अभयकुमार का हृदय करुणा से गद्गद हो गया। उन्होंने इस काम को कुछ काम न समझ ब्राह्मणों को इस प्रकार समझा दिया। हे विप्रो! आप इस कार्य के लिए किसी बात की चिंता न करें। आप धैर्य रखें। आपके इस विघ्न को दूर करने के लिए मैं भी उपाय सोचता हूँ। तथा ऐसा विश्वास देकर वे भी उस चिता को दूर करने का स्वयं उपाय सोचने लगे। कुमार की बुद्धि तो अगम्य थी, उक्त विघ्न दूर करने के लिए उन्हें शीघ्र ही उपाय सूझ गया। उन्होंने शीघ्र ही ब्राह्मणों को बुलाया। और उनसे इस प्रकार कहाहे विप्रो ! तुम एक काम करो बीच गाँव में एक खम्भा गड़वाओ। उससे कहीं से लाकर एक बाघ बाँध दो। जिस समय चराने से बकरा मोटा मालम पड़े धीरे से उसे बाघ के सामने लाकर खडा कर दो। विश्वास रखो इस रीति से वह बकरा न बढ़ेगा और न घटेगा। कुमार की युक्ति ब्राह्मणों के हृदय में जम गई। उन्होंने शीघ्र ही कुमार की आज्ञानुसार वह काम करना प्रारंभ कर दिया। प्रथम तो वे दिन-भर खूब बकरे को चरावें। और पश्चात् शाम को उसे बाघ के सामने ले जाकर खड़ा कर दें। इस रीति से उन्होंने कई दिन तक किया। बकरा वैसे-का-वैसा ही बना रहा। तथा जैसा राजगृह नगर से आया था वैसा ही ब्राह्मणों ने जाकर उसे महाराज की सेवा में हाजिर कर दिया॥५७-५६॥
तदा विघ्नं गतं वीक्ष्य विप्राः संतुष्टमानसाः । बभूवुर्जनितानंदा अभयाद्भय वर्जिताः ॥ ६० ॥ विप्राः समेत्य तत्पादौ प्रणम्य च पुनः पुनः । भो कुमार ! महाराज ! सुभग प्रियकारक ॥ ६१ ॥ अतो यज्जीवितं राजन्मेनेऽहं प्रीतिमंडितः । त्वत्तः कृपापराद्बुद्धिबोधिताखिलसंस्थितेः ॥ ६२ ॥ अकारणजगबंधुरसि त्वं भुवनत्रये । तादृशं नास्तिलोकेऽस्मिन् यादृशं त्वयि सौहृदं ।। ६३ ॥ परोपकृतये रक्ताः संतः संति स्वभावतः ।। मेघा इव सदा स्निग्धाः सदार्द्रा जगदुन्नताः ॥ ६४ ॥ कृपां कुरु प्रसीद त्वं तिष्ठ तिष्ठ ममालये। यावन्न याति मे विघ्नः तुष्टो भव मनोपरि ॥ ६५ ॥ गते त्वयि कथं राजन् स्थास्यामि नृपकोपतः ।
आकोपशांतिमत्रत्वमतस्तिष्ठ पुरे मम ॥ ६६ ।। विघ्न के हट जाने पर इधर ब्राह्मणों ने तो यह समझा कि कुमार की कृपा से हमारा विघ्न टल गया, हम बच गये। वे बारम्वार कुमार की प्रशंसा करने लगे। तथा अभयकुमार के पास
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