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श्रमण विद्या-२ अजीव के स्वरूप को जानने वाले को, पुण्य, पाप, आत्रव, संवर, निर्जरा, बन्धमोक्ष के स्वरूप को जाननेवाले को, अनतिक्रमणीय-धर्म से विचलित न होनेवाले को, सम्यक्त्व के पाँच प्रधान अतिचार जानने चाहिए, परन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे अतिचार इस प्रकार हैं-शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, परपाखण्ड प्रशंसा तथा परपाखण्ड संस्तव ।६७
दूसरे स्थल पर कहा गया है कि इसके बाद वह आनन्द जीव-अजीव, पुण्यपाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, मोक्षादि तत्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया तथा प्रतिलाभ कराता हुआ जीवन व्यतीत करने लगा ।६८ आगे कहा गया है कि तत्पश्चात् आनन्द की पत्नी शिवनन्दा भी श्रमणोपासिका बन गई, तथा जीवाजीवादि तत्त्वों के ज्ञानपूर्वक प्रतिलाभ कराती हुई जीवन जीने लगी।
प्रश्नव्याकरणाङ्ग में संवर शब्द तेरह प्रसंगों में प्रयुक्त हुआ है। उपोद्धात में कहा गया है कि जम्बू ! महर्षियों ने जिसका अर्थ भलीभांति बताया है, जिसमें आस्रव और संवर का विशेष रूप से निश्चय किया गया है, ऐसे प्रवचन के निस्यन्द-निचोड़ रूप इस शास्त्र को निश्चय करने के लिए अथवा मोक्ष के प्रयोजनार्थ कहूगा ।६९ संवर द्वार का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जम्बू ! आस्रव द्वारों का कथन करने के बाद, पांच संवर द्वार जिस प्रकार भगवान महावीर स्वामी ने समस्त दुःखों के विमोक्षार्थ कहें हैं, वैरो ही अनुक्रम से मैं कहूँगा।७० उनमें प्रथम संवर द्वार अहिंसा है, दूसरा संवर द्वार सत्य वचन है, ऐसा बतलाया गया है। दत्तमनुज्ञात नामक तीसग संवर द्वार है, चौथा संवर द्वार ब्रह्मचर्य है, और पांचवा संवरद्वार अपरिग्रहत्व है ।७१ आगे इन पांचों संवर द्वारों का क्रमशः अलग-अलग विस्तार से विवेचन किया गया है।
६७. उपासकदशाङ्ग १।३१ । ६८. वही ११५५, १।५६ । ६९. इण मो अण्हय-संवर-विगिच्छियं पवयणस्स निस्संदं । वोच्छामि णिच्छयत्थं सुहासियत्थं महेसीहिं ।।
-प्रश्नव्याकरणाङ्ग १/१/१ । ७०. जम्बू ! एत्तो य संवरदाराइपंच वोच्छामि आणुपुवीए । जह भणियाणि भगवया सव्वदुहविमोक्खणट्ठाए ।।
-वही, ६/१/२ । ७१. पढम होइ अहिंसा बितियं सच्चवयणं ति पन्नत्तं ।
दत्तमणुन्नायसंवरो य बंभचेरमपरिग्गहत्तं च ॥
-वही, ६/१/३ ।
संकाय पत्रिका-२
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