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श्रमणविद्या
१९५ के दीर्घ अन्तराल में जब लुप्त होने लगा तो स्मृति के आधार पर उसे लिपिबद्ध करने के प्रयत्न किये गये। इन्हीं प्रयत्नों का सुफल है कि पारम्परिक गाथाओं के अनेक छोटे-बड़े संग्रह तैयार हुए। ऐसे ग्रन्थ प्रायः 'संगहो' या 'सारो' नाम से निबद्ध किये गये । गाथाओं की प्राचीनता या पारम्परिकता को 'भणियं' या 'कहियं' कहकर व्यक्त किया गया। आचार्य कुन्दकुन्द अथवा उनके पूर्व से ही यह परम्परा देखी जाती है । सिद्धान्तों को निबद्ध करने के कारण ऐसे आचार्य सिद्धान्ती या सैद्धान्तिक कहलाये । कई आचार्यों ने स्वयं को सिद्धान्ती कहने में गौरव समझा। इसी क्रम में द्रव्यसंग्रह जैसे लघुकाय और त्रिलोकसार, गोम्मटसार (गोम्मटसंगहसुत्तं) जैसे विशालकाय ग्रन्थ तैयार हुए। १२-१३ वीं शती तक सैद्धान्तिकों की परम्परा चलती रही। लघुकाय ग्रन्थ तैयार करने के पीछे ग्रन्थकर्ता का एक विशेष उद्देश्य यह होता था कि अध्येता उसे सहज रूप से हृदयंगम और कंठस्थ कर सके । गेय होने के कारण गाथाएँ वैसे भी कंठस्थ करने में आसान होती हैं। द्रव्यसंग्रह की गाथाएँ भी अर्थगर्भ होते हुए भी सहज और गेय हैं। यही कारण है कि कंठस्थ करने की परम्परा अब तक चली आ रही है।
प्राचीन पारम्परिक गाथाओं को स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में निबद्ध करने के अतिरिक्त अनेक आचार्यों ने अपने ग्रन्थों की टीकाओं में उनका समावेश किया है। यही कारण है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के बहुत से ग्रन्थों में अनेक समान गाथाएँ उपलब्ध होती हैं। ऐसी समान गाथाओं को देखकर अपनी परम्परा के ग्रन्थ को प्राचीन बताकर दूसरे ग्रन्थ में उस ग्रन्थ से गाथाओं के लिए जाने की बात कहना प्रायः सामान्य हो गया है। वास्तव में ऐसी गाथाएँ उस अविभाजित श्रमण परम्परा की धरोहर हैं, जिसे बाद के आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में समान रूप से अपनाया । इस दिशा में गहन अनुसन्धान अपेक्षित है। द्रव्यसंग्रह जैसे लघुग्रन्थ से इस प्रकार के अनुसन्धान कार्य को प्रारम्भ किया जा सकता है। ऊपर लिखा जा चुका है कि द्रव्यसंग्रह की गाथाएँ प्रतिपाद्य विषय, भाषा और गठन की दृष्टि से आचार्य कुन्दकुन्द के अधिक निकट हैं। कर्म सिद्धान्त से सम्बद्ध गाथाओं को परम्परा कसायपाहुड, छक्खंडागम, गोम्मटसार-कर्मकाण्ड आदि में देखी जा सकती है।
___ सैद्धान्तिकों ने आचार्य परम्परा से प्राप्त सुत्त गाथाओं को लिपिबद्ध करने के जो प्रयत्न किये, उनका ऐतिहासिक महत्त्व है। संस्कृत में मौलिक ग्रन्थ रचना का प्राबल्य हो जाने के युग में प्राचीन परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने का सैद्धान्तिकों का दाय जैन श्रमण परम्परा के इतिहास की बहुत बड़ी थाती है। द्रव्यसंग्रह का
संकाय-पत्रिका-२
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