Book Title: Shramanvidya Part 2
Author(s): Gokulchandra Jain
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 218
________________ श्रमण विद्या १९९ "Thus it is clear that the commentator, Brahmadeva, was born several centuries ofter Nemichandra. Consequently, the statement which he makes about the composition of works by Nemichandra must be read with caution and accepted only when the same are confirmed by other proofs. Keeping this fact in view, we are not inclined to accept without any further evidence, the statement made by Brahmadeva. इस प्रकार द्रव्यसंग्रह तथा त्रिलोकसार आदि के कर्ता एक ही नेमिचन्द्र हैं, यह मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है । नेमिचन्द्र का समय उनके ग्रन्थों, शिलालेखों तथा अन्य साक्ष्यों के आधार पर शक संवत् ९०० ईस्वी सन् ९७८ निश्चित किया गया है । वे गंगवंशी राजा राचमल्ल के प्रधान सेनापति चामुण्डराय के गुरु थे । विशेष विवरण के लिए गोम्मटसार आदि की प्रस्तावना द्रष्टव्य है । द्रव्यसंग्रह की भाषा द्रव्यसंग्रह की गाथाएँ जैन शौरसेनी में निबद्ध हैं । दिगम्बर परम्परा के प्राकृत ग्रन्थों की भाषा के अध्ययन के बाद डॉ पिशेल ने 'जैन शौरसेनी' एक विशेष नामकरण किया। संस्कृत नाटकों में प्रयुक्त शौरसेनी से यह भिन्न है । प्राचीन ग्रन्थों के प्रतिलिपिकारों के कारण तथा विशेष रूप से प्राकृत ग्रन्थों पर लिखी गयी संस्कृत टीकाओं के कारण प्राचीन गाथाओं का गठन बहुत प्रभावित हुआ है । इसलिए जब तक सही मानों में समालोचनात्मक संस्करण तैयार नहीं होते, किसी भी ग्रन्थ का भाषाशास्त्रीय अध्ययन प्रमाणिक नहीं हो सकता । प्रस्तुत संस्करण की गाथाएँ संस्कृत टीका पर आधारित हैं । परिशिष्ट में दिया प्राकृत शब्दकोश भाषायी अध्ययन की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध होगा । प्रस्तुत संस्करण प्रस्तुत संस्करण में द्रव्यसंग्रह अपने प्राकृत 'दव्वसंगहो' नाम से प्रकाशित किया जा रहा है । मूल ग्रन्थ में स्पष्ट नामोल्लेख होने पर भी प्राकृत ग्रन्थों को भी प्रायः संस्कृत या हिन्दी नाम से प्रकाशित करने की परम्परा कब से कैसे चल पड़ो, इस बात पर विचार की अपेक्षा सम्पादकों से हम यह निवेदन करना चाहते हैं कि भविष्य में मूल नाम से ही ग्रन्थों को प्रकाशित किया जाना चाहिए । इसी क्रम में हमने 'परमागमसारो', 'तच्चवियारो', 'कसायपाहुडसुत्तं' का प्रकाशन किया है । अवचूरि का सम्पादन मात्र एक प्रति से किया गया है, इस कारण इसमें त्रुटियाँ संभव हैं । हमारी अपेक्षा है कि भविष्य में 'दव्वसंगहो' का प्रकाशन पूर्ण संकाय पत्रिका - २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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