Book Title: Shramanvidya Part 2
Author(s): Gokulchandra Jain
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 258
________________ 25 15 5 47, 52, 54 अवचूरिजुदो दम्ब संगही २३९ मणपज्जय-मन:पर्यय लोयालोयस्स-लोकालोक के 51 मा-नहीं 48, 56 लोयायासपदेसे–लोकाकाश के प्रदेश में 22 मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओ [व] मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, योग, क्रोधादि 30 वंदे-वन्दना करता हूँ मुज्झह - मोह करो 48 वदसमिदीगुत्तीओ-व्रत-समिति-गुप्तियां 35 मुत्ति-मूर्तीक वदसमिदिगुत्तिरूवं-व्रत, समिति और मुत्ते-मूर्त में गुप्ति रूप 45 मुत्तो-मूर्त वट्टइ-है मुणिणाहा-मुनि श्रेष्ठ वट्टण लक्खो-वतंना लक्षण वाला मुणी-मुनि वण्ण-वर्ण (रंग) मुयत्त-छोड़कर ववहारणया-व्यवहारनय से मोक्खस्स.-मोक्ष का ववहारा-व्यवहार से 3, 6, 7, 9, मोक्खहेउं-मोक्ष का कारण [य] ववहारो-व्यवहार य-और 3, 12, 13, 20, 21, 24, 26, वादरसुहमे इंदिय-वादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय 35, 36, 37, 45, 55 वा-अथवा वि-भी 26, 28, 55 रओ-लीन, रत विगतिगचदुपंचक्वादो-तीन, चार, रज्जह--राग करो पांव इन्द्रिय 11 रयणत्तयं-रत्नत्रय विचित्त-विचित्र रयणत्तयजुत्तो-रत्नत्रय से युक्त विचितिज्जो-ध्यान करना चाहिए रयणाणं-रस्नों की विणिवित्ती-निवृत्ति (अलग होना) रस-रस (स्वाद) विण्णेओ-जानना चाहिए 29 रासीमिव-राशि के समान विण्णया-जानना चाहिए 13 30 [ल] वियाण-जानो रूवमप्पणो-आत्मरूप 41 विविहथावरेइंदी-विविध स्थावर रूवादिगुको-रूपादि गुण वाला एकेन्द्रिय 11 लद्धूण-पाकर विस्ससोड्ढगई-स्वभाव से ऊर्ध्वगति 2 लोगागासं-लोकाकाश वीरियचारित्तवरतवायारे-वीयं, चरित्र लोगो-लोक और श्रेष्ठ तपाचार में 52 लोयग्गठिदा-लोकाग्र स्थित [स] लोयसिहरत्थो-लोक के शिखर संखादि-शंख आदि 11 पर स्थित 51 संजुत्ता-संयुक्त 56 A0 19 15 e 14 संकाय पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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