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श्रमणविद्या 49) अपगतवेदी जीव के छब्बीस, सत्ताईस, तेईस, पच्चीस और बाईस-प्रकृतिक
ये पाँच शून्यस्थान हैं, इसमें संक्रमस्थान नहीं पाए जाते हैं ।। 50) नपुंसक वेदियों में उन्नीस, अठारह, चौदह तथा ग्यारह को आदि लेकर शेष
(ग्यारह, दश, नौ, आठ, सात, छह, पाँच, चार, तीन, दो और एक) चौदह
स्थान शून्य हैं। 51) स्त्रीवेदियों में अट्ठारह और चौदह ये दो स्थान, तथा दश को आदि लेकर
एक तक के दश स्थान, इस तरह बारह शून्य स्थान समझना चाहिए।
पुरुषवेदियों में, उपशामक और क्षपक में चौदह प्रकृतिक स्थान एवं नौ से __ लेकर एक तक के नौ स्थान, ये दश स्थान शून्य हैं । 53) प्रथम कषाय से उपयुक्त जीवों में नौ, आठ, सात, छह, पाँच, दो और एक
प्रकृतिक सात शून्य स्थान हैं। 54) द्वितीय कषाय से उपयुक्तों में सात, छह, पाँच और एक-प्रकृतिक ये चार
स्थान शून्य हैं । इस प्रकार आनुपूर्वी से शून्य स्थान कहे गये हैं। 55) इस प्रकार वेदमार्गणा में और कषायमार्गणा में संक्रमस्थानों के शून्य और
अशून्य स्थानों के दृष्टिगोचर हो जाने पर ( जान लेने पर) शेष मार्गणाओं में
भी आनुपूर्वी से संक्रमस्थानों की गवेषणा करनी चाहिए। 56) कर्माशिकस्थानों में (मोहनीय के सत्त्व स्थानों में) और बंधस्थानों में संक्रम
स्थानों की गवेषणा करना चाहिए। एक-एक बन्ध स्थान और सत्वस्थान के साथ संयुक्त संक्रमस्थानों के एक संयोगी तथा द्विसंयोगी भंगों को निकालना
चाहिए। 57- प्रकृतिकस्थानसंक्रम अधिकार में सादिसंक्रम, जघन्यसंक्रम, अल्पबहुत्व, काल, 58) अन्तर, भागाभाग और परिमाण अनुयोगद्वार होते हैं। इस प्रकार नय के
ज्ञाताओं को श्रुतोपदिष्ट, उदार और गम्भीर संक्रमण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और सन्निपात (अर्थात् सन्निकर्ष) की अपेक्षा जानना चाहिए। प्रयोग विशेष के द्वारा कितनी कर्म प्रकृतियों को उदयावली में प्रवेश करता है ? तथा किसके कितनी कर्म प्रकृतियों को उदीरणा के विना ही स्थिति क्षय से उदयावली में प्रवेश करता है ? क्षेत्र, भव, काल और पुद्गल द्रव्य का आश्रय लेकर जो स्थिति विपाक होता है, उसे उदीरणा कहते हैं और उदयक्षय को उदय कहते हैं।
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संकाय-पत्रिका-२
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