________________
कसा पाहुडसुत्
180) उदय को आदि लेकर यथाक्रम से अवस्थित प्रथमस्थिति की अवयवस्थितियों में जो कर्मरूपद्रव्य है, वह नियम से आगे आगे ह्रस्व (न्यून) है । उदयस्थिति से ऊपर अनन्तर स्थिति में जो प्रदेशाग्र के क्षय से प्रवेश करते हैं, वे असंख्यात रूप से प्रवेश करते हैं ।
181) पश्चिम कृष्टि ( संज्वलन लोभ की सूक्ष्मसाम्परायिक अन्तिम बारहवीं कृष्टि ) IT वेदक काल नियम से अल्प है । पश्चात् अनुपूर्वी से शेष ग्यारह कृष्टियों का वेदक काल क्रमशः संख्यातवें भाग से अधिक है ।
१५१
182) कितनी गतियों में, भवों में, स्थितियों में, अनुभागों में और कषायों में पूर्वबद्ध कर्म कितनी कृष्टियों में और उनकी कितनी स्थितियों में पाये जाते हैं ?
183) पूर्वबद्ध कर्म दो गतियों में अभजनीय हैं तथा दो गतियों में भजनीय हैं । केन्द्रिय जाति और पंच स्थावरकायों में भजनीय है । शेष चार जातियों में और त्रसकाय में भजनीय नहीं हैं ।
184) क्षपक के असंख्यात एकेन्द्रिय-भवग्रहणों के द्वारा बद्धकर्म नियम से पाया जाता है तथा एक को आदि लेकर दो, तीन आदि संख्यात भवों के द्वारा संचित कर्म पाया जाता है ।
185) उत्कृष्ट अनुभागयुक्त तथा उत्कृष्ट स्थितियुक्त पूर्वंबद्ध कर्म भजनीय हैं । कषायों में पूर्वबद्ध कर्म नियम से अभजनीय हैं ।
186) पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था के साथ तथा स्त्री, पुरुष और नपुंसकवेद के साथ मिश्र प्रकृति, सम्यक्त्व प्रकृति तथा मिथ्यात्व प्रकृति के साथ और किस योग और उपयोग के साथ पूर्वबद्ध कर्म क्षपक के पाये जाते हैं ?
187 ) पर्याप्त, अपर्याप्त दशा में, मिथ्यात्व नपुंसकवेद और सम्यक्त्व अवस्था में बाँधे हुए कर्म अभाज्य हैं । तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और सम्यग्मिथ्यात्व अवस्था में बाँधे हुए कर्म भाज्य हैं ।
188) औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, चतुर्विध मनोयोग और चतुर्विध वचनयोग में बाँधे हुए कर्म अभाज्य हैं । शेष योगों में बाँधे हुए कर्म भाज्य हैं । 189) श्रुत, कुश्रुतरूप उपयोग में, मति, कुमतिरूप उपयोग में पूर्वबद्ध कर्म अभाज्य हैं, किन्तु दोनों प्रत्यक्ष छद्मस्थज्ञानों में पूर्वबद्ध कर्म भाज्य हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
संकाय-पत्रिका-२
www.jainelibrary.org