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प्रस्तावना
कसायपाहुडसुत्तं को पाण्डुलिपियां
'कसायपाहुडसुत्त' प्राकृत में निबद्ध जैन कर्म सिद्धान्त का प्राचीन ग्रन्थ है। वर्तमान में मूल ग्रन्थ की स्वतन्त्र रूप से एक भी हस्तलिखित प्राचीन प्रति उपलब्ध नहीं है । आचार्य वीरसेन-जिनसेन कृत जयधवला टीका की हडेगन्नड-प्राचीन कन्नड लिपि में ताडपत्रों पर उत्कीर्ण एक प्राचीन प्रति मूडबिद्री, साउथ कनारा को सिद्धान्तवसदि (अब रत्नत्रय वसदि) में सुरक्षित है।' इस टीका में कसायपाहुड के 'गाहासुत्त' तथा 'चुण्णिसुत्त' समाहित हैं। अन्य ग्रन्थ-भण्डारों में कागज पर कन्नड अथवा देवनागरी लिपि में लिखित जो प्रतियाँ उपलब्ध हैं, वे सब इसी ताडपत्रीय प्रति की प्रतिलिपियों से क्रमशः सन् १८९५ के बाद लिखी गयी हैं। जयधवला बृहत्काय टीका है, जिसका परिमाण सात हजार श्लोक प्रमाण बताया गया है । कसायपाहुडसुत्तं का प्रकाशन
__कसायपाहुडसुत्तं, यतिवृषभकृत चुण्णिसुत्त तथा वीरसेन-जिनसेन कृत जयधवला टीका देवनागरी लिपि में हिन्दी अनुवाद के साथ सोलह जिल्दों में प्रकाशित है। टीका को प्रतिलिपि से गाहासुत्त तथा चुण्णिसुत्त संकलित करके स्व० पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री ने हिन्दी विवेचन के साथ प्रकाशन कराया था। इसी के आधार पर स्व० पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर ने हिन्दी विवेचन के साथ 'कषायपाहुडसूत्र' का प्रकाशन कराया । प्रस्तुत संस्करण
कसायपाहुडसुत्तं का प्रस्तुत संस्करण अध्ययन-अनुसन्धान की नवीन संभावनाओं के उद्देश्य से तैयार किया गया है। इसलिए इसकी प्रस्तुती अनुसन्धान सामग्री के रूप में है। इसमें क्रमशः मूल प्राकृत गाथायें, हिन्दो भावानुवाद, गाथानु१. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थसूची, संख्या ७, पृ० २५५, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी,
सन् १९४८ । २. भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी, मथुरा, सन् १९८४ से । ३. वीरशासन संघ, कलकत्ता, १९५५ । ४. श्रुतभण्डार तथा ग्रन्थप्रकाशन समिति, फलटन, सन् १९६८ ।
संकाय-पत्रिका-२
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