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कसायपाहुडसुतं 'सुत्त' की परम्परा प्रवर्तित होती है। कालान्तर में इस अवधारणा का विकास हुआ तथा गणधर के साथ प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली तथा अभिन्नदशपूर्वी को भी 'सुत्त' का कथन करने वाला मान लिया गया। गाहासुत्त, चुण्णिसुन, वित्तिसुत्त आदि की परिभाषाएँ अलग-अलग की गयी हैं। संस्कृत में अल्पाक्षरत्व आदि सूत्र की परिभाषा भी पर्याप्त प्राचीनकाल में स्थिर हो गयो प्रतीत होती है। इसीलिए जयधवलाकार ने कसायपाहुड के गाहासुत्तों में भी उस परिभाषा को समायोजित किया है।८ यतिवृषभ ने कसायपाहुड को गाथाओं को उनके विषय के अनुसार पृच्छासुत्त, वागरणसुत्त तथा सूचणासुत नाम दिये हैं। कसायपाहुड की रचना शैली
कसायपाहुड की गाथाओं से इसकी रचना शैली का पता चलता है । शब्दार्थ की दृष्टि से गाथाएँ क्लिष्ट नहीं है, किन्तु इनमें प्रतिपाद्य विषय सामान्य अध्येता की समझ में नहीं आ सकता। कर्मसिद्धान्त का ज्ञाता ही उसे ठीक से समझ सकता है। अनेक गाथायें प्रश्नात्मक हैं। इनमें विभिन्न अधिकारों से सम्बद्ध विषय को प्रश्नों के रूप में निर्दिष्ट किया गया है। इन प्रश्नों से सम्बद्ध विषय को कहीं-कहीं दूसरी गाथाओं में संक्षेप में कह दिया गया है और कहीं-कहीं प्रश्नों के द्वारा ही विषय की सूचना मात्र दी गयी है। ग्रन्थ की गाथाओं और प्रतिपाद्य विषय को देखने से ज्ञात होता है कि.मूल ग्रन्थ को विना उसकी व्याख्या के नहीं समझा जा सकता । इसी से ज्ञात होता है कि वाचना और व्याख्यान करने की विशेष परिपाटी रही है। यतिवृषभ को आर्यमंक्षु और नागहस्ती कृत कसायपाहुड का व्याख्यान उपलब्ध न होता तो उनके लिए चुण्णिसुत्तों की रचना करना कठिन था। इसी तरह यदि वीरसेन-जिनसेन को कसायपाहुड व्याख्यान सहित उपलब्ध नहीं होता तो वे जयधवला जैसी विस्तृत टीका नहीं लिख सकते थे।
प्रश्नात्मक शैली पर ऐतिहासिक दृष्टि से भी विचार करना अपेक्षित है। जैन परम्परा में अर्धमागधी आगमों से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर से गौतम गणधर प्रश्न के रूप में अपनी जिज्ञासा प्रकट करते हैं और महावीर उत्तर में १६. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गथंति गणहरा निऊणं । सासणस्स हियट्ठाए तओ सुत्तं पवत्तइ ।।
-आवश्यकनियुक्ति गाथा ९२ । १७. सुत्तं गणहर कहियं तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च ।
सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुन्वि कहियं च ॥ -भगवती आराधना, गाथा ३४ । १८. कसा० पा० भाग १, पृ० १५४ । संकाय-पत्रिका-२
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