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श्रमणविद्या
११३ उपर्युक्त तथ्यों से यह भी ज्ञात होता है कि कर्मसिद्धान्तविषयक चिन्तन जैन श्रमण परम्परा में वर्द्धमान महावीर से पूर्व पर्याप्त रूप में विकसित हो चुका था । यही कारण है कि उसे बारहवें अंग दिट्टिवाय के अन्तर्गत चौदह पूर्वो में समाहित किया गया । कर्मसिद्धान्त के ज्ञाता और विवेचक आचार्यों की परम्परा महावीर के बाद पर्याप्त समय तक चलती रही । आचार्यों की व्याख्याओं से कर्मसिद्धान्त का और अधिक विस्तार हुआ। व्याख्यान भेद से भिन्न-भिन्न परम्पराएँ बनीं। कर्मसिद्धान्त को लिपिबद्ध करते समय विभिन्न आचार्यों ने प्राचीन दाय का पूरा-पूरा उपयोग करने का प्रयत्न किया, फिर भी परम्परा की भिन्नताओं के कारण लिपिबद्ध ग्रन्थ परम्पराओं में बँट गये तथा देश और काल के अनुसार भाषागत परिवर्तनों से भी प्रभावित हुए। इतना होने पर भी सौभाग्य से जैन परम्परा में कर्मसिद्धान्त विषयक सामग्री प्रचुर मात्रा में सुरक्षित है । एक तटस्थ अध्येता के लिए यह बहुत कठिन नहीं है कि उपलब्ध सामग्री के आधार पर वह कर्म सिद्धान्त के विकास क्रम को न समझ सके । सम्पूर्ण भारतीय कर्म साहित्य के सन्दर्भ में देखने पर जैन परम्परा के कर्मसिद्धान्त की विशेषता का भी स्पष्ट परिज्ञान होता है।
प्राचीन काल से कर्मसिद्धान्त भारतीय चिन्तन का एक महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। विश्व के वैविध्य, जन्म-मरण, सुख-दुःख आदि के कारणों की गवेषणा के क्रम में अनेक विचार प्रस्फुटित हुए। इसी चिन्ताधारा में कर्म का अद्भत सिद्धान्त प्रतिफलित हुआ। सम्पूर्ण भारतीय धर्म-दर्शनों ने इस सिद्धान्त को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया। धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रतिपादन में इसका उपयोग किया गया । इस प्रकार कर्मसिद्धान्त के विकास में सभी भारतीय-परम्पराओं का योगदान है, तथापि भारतीय मनीषा के इस आविष्कार का जितना सूक्ष्म, सुव्यवस्थित, सुसम्बद्ध तथा सर्वाङ्ग विवेचन जैन परम्परा के साहित्य में उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र अप्राप्त है। जैन तत्त्वचिन्तन तथा आचार विषयक सिद्धान्त इसके मौलिक आधार हैं। इसी आधार पर जैन आचार्यों ने व्यक्तिस्वातन्त्र्य, स्वकृत कर्म और उसके फल का दायित्व, पूर्व तथा पश्चात् कालीन जीवन, आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व तथा उसके पुरुषार्थ की सार्थकता आदि सिद्धान्तों का विवेचन किया। इसके साथ ही कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, यदृच्छावाद, भूतवाद, ईश्वरवाद आदि की समीक्षा की। इसके लिए जैन परम्परा में कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले अनेक विशालकाय शास्त्र निर्मित हुए।।
कषायों का विवेचन कर्मसिद्धान्त के अन्तर्गत आता है। कर्मबन्धन में कषायों की निर्णायक भूमिका है। कषायों की तीव्रता और मन्दता के अनुरूप कर्मबन्धन
संकाय-पत्रिका-२
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