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श्रमण विद्या
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इसके बाद दर्शनमोह के क्षय का विवेचन है । क्षायिक सम्यक्त्व होने पर ही मोक्ष होता है | गाथा ११५ में संयमासंयमलब्धि अधिकार का निर्देश है । इससे आगे चरित्रमोह की उपशामना नामक अधिकार है और अन्त में चरित्रमोह क्षपणा नामक अधिकार है । इस अधिकार में विस्तार से चरित्रमोह के क्षय का निरूपण है । इसके बाद चूलिका गाथाएँ हैं ।
आचार्य गुणधर
कसा पाहुड की जयधवला टीका तथा इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार से ज्ञात होता है कि कसा पाहुड के रचयिता आचार्य गुणधर हैं। वे कब हुए तथा उनका जीवनवृत्त क्या है इत्यादि बातों पर प्रकाश डालने वाले साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं | इन्द्रनन्दि को अपने समय में भी गुणधर और धरसेन का जीवनवृत्त, गुरुपरम्परा आदि ज्ञात नहीं हो सकी थी। इस बात की जानकारी उनके इस कथन से मिलती है कि गुणधर और धरसेन के वंशगुरु के पूर्वापर को हम नहीं जानते, क्योंकि उनके अन्वय का कथन करने वाले आगम और मुनिजनों का अभाव है
"गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः ।
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥१९ जयधवलाटीकाकार वीरसेन दोनों को वीर निर्वाण से ६८३ वर्ष पश्चात् हुआ बताते हैं, किन्तु दोनों की पूर्व परम्परा के सम्बन्ध में वे भी मौन हैं। इससे ज्ञात होता है कि उन्हें भी दोनों का पूर्वापर क्रम ज्ञात नहीं था ।
यतिवृषभ ने कसायपाहुड पर चूर्णि की रचना की, जो जयधवला के साथ उपलब्ध है, किन्तु इस चूर्ण में यतिवृषभ ने गुणधर के विषय में कोई जानकारी नहीं दी । जयधवला और श्रुतावतार से गुणधर के विषय में इतनी जानकारी मिलती है कि आचार्य गुणधर ज्ञानप्रवाद नामक पंचम पूर्व की दसमीं वस्तु सम्बन्धी तृतोय कसा पाहुड या पेज्जपाहुड रूपी महासमुद्र के पारगामी थे । उन्होंने सोलह हजार पद प्रमाण पेज्जदोसपाहुड को एक सौ अस्सी गाथाओं में निबद्ध किया था । जयधवलाकार के अनुसार ये गाथायें आचार्य परम्परा से आकर आर्यमक्षु और नागहस्ति को प्राप्त हुई । इन्द्रनन्दि के अनुसार गुणधर ने स्वयं उनका व्याख्यान नागहस्ति और आर्यमक्षु के लिए किया । जयधवलाकार ने गुणधर को 'वाचक' कहा है ।
इन सन्दर्भों से कहा जा सकता है कि आचार्य गुणधर के काल निर्णय के लिए कसा पाहुड की प्राचीन परम्परा का आलोडन आवश्यक है । इसी सन्दर्भ में आर्यक्षु तथा नागस्ति के विषय में भी विचार करना आवश्यक है ।
१९. श्रुतावतार, पद्य १५१ ।
२०. कसायपाहुड, भाग १, पृ० ३६५ ।
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संकाय-पत्रिका - २
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