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श्रमणविद्या
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ऐसा प्रतीत होता है कि पुष्पदंत ने एक 'पाहुड' प्रमाण 'सुत्त' भूतबलि के पास प्रेषित किये थे ।
'पाहुड' की कई व्युत्पत्तियाँ उपलब्ध हैं । उन सबका विवेचन यहाँ अभीष्ट नहीं है । विशेष ध्यातव्य यह है कि प्रायः सभी व्युत्पत्तियाँ 'पाहुड' के एक निश्चित आकार का बोध देती हैं । इनसे परिमाण और विषय की दृष्टि से भी पाहुड के स्वरूप-गठन का पता चलता है । निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि 'पाहुड' विषय विशेष का स्पष्ट विवेचक आगमांश है, जिसका परिणाम प्रायः बीस 'गाहासुत्त ' या विषय के अनुरूप सुनिश्चित होता है । पाहुड के सन्दर्भ में यह भी महत्त्वपूर्ण है कि अब तक उपलब्ध सभी पाहुड 'सुत्तगाहा' निबद्ध हैं । 'पाहुड' का पर्याय संस्कृत और हिन्दी में प्राभृत करके उसका अर्थ 'उपहार' किया जाता है । यह उपयुक्त नहीं है ।
सुत या सूक्त प्राकृत 'सुत्तं' शब्द का पर्याय 'सूक्त' है । सुत्त का सूत्र पर्याय या अर्थ सर्वथा गलत और भ्रम उपन्न करने वाला है । भारतीय वाङ्मय में सूक्त की परम्परा प्राचीनकाल से प्रचलित रही है ।
प्राकृत और पाली में सुत्त तथा संस्कृत में सूक्त शब्द व्यवहृत हुआ है । पाली त्रिपिटक तथा जैन आगम 'सुत्तं' शब्द से अभिहित हैं । ऋक्संहिता आदि के मन्त्रों को सूक्त कहा गया है । सूक्तिमुक्तावलि आदि ग्रन्थ संस्कृत में सूक्त परम्परा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं । देश्य भाषाओं को उत्तरकालीन रचनाओं में सूक्तों की परम्परा अपभ्रंश, सूफी तथा सन्त साहित्य में स्पष्टरूप से देखी जा सकती है । नव्य भारतीय आर्य भाषाओं में मुक्तक और दोहा के रूप में सूक्त लेखन की परम्परा आगे बढ़ी | संस्कृत में सूत्र परम्परा का विकास सर्वथा भिन्न प्रयोजन और भिन्न रूप में हुआ है । सुत्त की परम्परा शास्ता के उपदेशों के संकलन के अर्थ में हुई जबकि सूत्र को निष्पत्ति का मुख्य प्रयोजन अल्पाक्षरत्व है । संस्कृत में व्याकरण सम्मत सूत्र संरचना आरम्भ होने पर जैन और बौद्ध ग्रन्थकारों ने भी उसे अपनाया तथा अनेक सूत्र ग्रन्थों की रचना की ।
कसा पाहु की गाथाओं को 'सुत्तगाहा' कहा गया है । इसलिए 'सुत्तं' को ग्रन्थ के नाम का अंग माना जा सकता है ।
जैन श्रमण परम्परा में इस बात पर प्राचीन समय में कि 'सुत्त' किसे कहा जाये । आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है
का कथन करते हैं और शासन के हितार्थ गणधर 'सुत्त' ग्रथित करते हैं । इसी से
संकाय पत्रिका - २
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भी विचार हुआ है
कि अरहन्त 'अर्थ'
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