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कसा पाहुड
प्रवाद' है । इसी पूर्व की दशमी वस्तु में तीसरे पाहुड का नाम 'पेज्जपाहुड' है । इसी पाहुड के अन्तर्गत कसायपाहुड है । दृष्टिवाद और चौदह पूर्व वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं । इसलिए अन्य स्रोतों से उनके विषय में प्राप्त जानकारी ही आधार भूत है ।
जयधवलाकार को कसायपाहुड के गाहासुत्त तथा यतिवृषभ की चूर्णि उपलब्ध हुए और उन्होंने गाहासुत्त तथा चूर्ण दोनों को अपनी टीका में समाहित करके सुरक्षित कर दिया । इनकी प्राचीन परम्परा के सम्बन्ध में जयधवलाकार को जो जानकारी प्राप्त हुई, उसे भी अपनी टीका में निबद्ध किया है। उन्होंने लिखा है कि कसायपाहुड के गाहासुत्त गुरु-शिष्य परम्परा से आते हुए आर्य मंक्षु प्राप्त हुए। उन दोनों के पादमूल में एक सौ अस्सी गाथाओं के प्रकार से सुनकर यतिवृषभ ने चूर्णिसूक्त बनाये ।
तथा नागहस्ति अर्थ को सम्यक्
“ पुणो ताओ चैव सुत्तगाहाओ आइरियपरंपराए आगच्छमाणीओ अज्ज - मंखुणागहत्थीर्ण पत्ताओ । पुणो तेसि दोहं पि पादमूले असीदिसदगाहाणं गुणहरसुहकमलविणिग्गयाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिवसहभडारएण पवयणवच्छलेन चुण्णिसुत्तं कथं "८
कसा पाहुड के गाहासुत्त मौखिक परम्परा द्वारा कंठस्थ करके दीर्घकाल तक सुरक्षित रखे गये । लिपि और लेखन कला के विकास के पूर्व महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों को कंठस्थ करके उन्हें सुरक्षित रखने के लिए उन्हें गाहासुत्त के रूप में गठित कर लिया जाता था। गाहासुत्त गेय होते थे । उनके उच्चारण और कंठस्थ करने की सुनिश्चित प्रक्रिया थी । उसके ज्ञाता 'उच्चारणाचार्य' कहे जाते थे । शिष्य उच्चारणाचार्य से गाहासुत्त धारण करता था । धारणा के बाद शिष्य की अर्थग्रहण - सामर्थ्य को समझकर 'सूक्त' के 'वागरण' – व्याख्या द्वारा शिष्य को अर्थ दिया जाता था । यह कार्य 'वागरणाचार्य' का था । शिष्य की प्रज्ञा, अर्थग्रहण - सामर्थ्यं तथा उसके सदुपयोग का विनिश्चय करने के बाद गुरु शिष्य को 'सुत्त' की विस्तृत 'वाचना' देता था । एक ही गुरु शिष्य की पात्रता के अनुसार उसे 'सुत्त', 'वागरण' तथा 'वाचना' में से मात्र एक अथवा दो अथवा तीनों प्रदान कर सकता था। तीनों के लिए स्वतन्त्र रूप से ‘उच्चारणाचार्य' ‘वागरणाचार्य' तथा 'वाचकाचार्य' भी होते थे ।
कसा पाहुड की उपलब्ध जयधवला टीका में सुरक्षित गाहासुत्त, चुण्णिसुत्त तथा गुणधर, आर्यमंक्षु, नागहस्ति और यंतिवृषभ के सन्दर्भों से प्रतीत होता है कि ८. कसा० पा०, भाग १, पृ० ८८ ।
संकाय पत्रिका-२
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