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प्राक्कथन
'नाम-रूपसमासो' नामक गद्य पद्यात्मक यह लघुकाय ग्रन्थ 'भदन्त क्षेम' नामक आचार्य की रचना है। बर्मा में यह ग्रन्थ 'खेमप्पकरण' नाम से प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थ पर सिंहली भाषा में एक प्राचीन सिंहली आचार्य द्वारा विरचित 'सन्न' नाम से एक प्राचीन व्याख्या भी है, जिसका नाम 'सिलिपिटपत' है। इस व्याख्या के साथ मूल ग्रन्थ का सम्पादन सन् १९८० ई० में सिंहली भिक्षु बटपोले सुभद्ररामाधिपति अनुनायक स्वामी श्री धर्मपाल ने सम्पन्न किया था।
पोलवत्ते बुद्धदत्त का कहना है कि प्रस्तुत ग्रन्थ की एक टीका वाचिस्सर महास्वामी द्वारा लिखी गई है, जिसे उन्होंने १९२६ ई० में बर्मा में रहते समय वहाँ देखा था। उनका कहना है कि उक्त व्याख्या सहित मुद्रित ग्रन्थ की पृष्ठ संख्या ७२ है ।
बौद्ध आभिधार्मिक समस्त जागतिक पदार्थों का संग्रह पाँच स्कन्धों में करते हैं, यथा-रूपस्कन्ध, वेदनास्कन्ध, संज्ञास्कन्ध, संस्कारस्कन्ध एवं विज्ञानस्कन्ध । रूपस्कन्ध को छोड़कर शेष चार स्कन्ध 'नाम' कहे जाते हैं तथा रूपस्कन्ध 'रूप' कहलाता है । ग्रन्थकार ने इन्हीं नाम-रूप धर्मों का संक्षेप से निरूपण किया है, जो ग्रन्थ के नाम से ही स्पष्ट है । ग्रन्थ की भाषा सरल पालि है तथा शैली सुगम एवं स्पष्ट है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ का एक संस्करण पी. टी. एस. लन्दन के जर्नल में १९१५-१६ में प्रकाशित हुआ है । प्रस्तुत ग्रन्थ का वही प्रमुख आधार है। इसके पाठ का रोमन, बर्मी और सिंहली संस्करणों से भी मिलान किया हुआ है। देवनागरी में इस ग्रन्थ के प्रकाशन का उद्देश्य इसे जिज्ञासु विद्वानों और शोध-छात्रों को सुलभ कराना मात्र है । आशा है इससे सुधी जनों को मनस्तोष होगा ।
रामशंकर त्रिपाठी
सकाय पत्रिका-२
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