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श्रमण परम्परा में संवर धर्मान्तरायिक चारित्रावरणीय, यतनावरणीय, अध्यवसानावरणीय, आभिनिबोधकज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षयोपशम नहीं किया तथा श्रुतावधिमनपर्यवज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं किया और केवलज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय नहीं किया, वह जीव केवली आदि से धर्म श्रवण किये विना धर्म श्रवण-लाभ नहीं पाता, संयम एवं संवर से संवृत नहीं हो पाता। और जिस जीव ने ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षयोपशम तथा क्षय किया है वह केवली आदि से धर्म श्रवण किये विना ही केवलीप्ररूपित धर्म-श्रवण-लाभ प्राप्त करता है, शुद्ध बोधि, संयम तथा संवर आदि से संवृत होता है और केवलज्ञान को उपार्जित कर लेता है ।६३
एक अन्य प्रसंग में अम्बड़ परिव्राजक के विषय में गौतम महावीर से पूछते हैं-भंते ! वह अम्बड़ परिव्राजक मुंडित होकर आपके पास गृहस्थ से अनगार बना ? इसके उत्तर में महावीर कहते हैं-गौतम ! ऐसी बात नहीं है, उस श्रमणोपासक ने जीव-अजीव को जान लिया है, पुण्य-पाप का तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लिया है, आस्रव, संवर, निर्जरा आदि में प्रवीण है, अनेक तप कर्मों से अपनी आत्मा में लीन विचरण करता है, तथा महद्धिक दृढ़प्रतिज्ञ होकर सभी दुःखों का अन्त करेगा।६४
एक और प्रश्न करते हुए गौतम कहते हैं-भंते ! संवेग, निर्वेद, आलोचना, निन्दा, गर्हा, क्षमापना, पंचेन्द्रियादि संवर इत्यादि ४९ प्रकार के पदों का क्या फल है ? इसके उत्तर में महावीर कहते हैं-गौतम ! संवेग, निर्वेद, आलोचना, पंचेन्द्रियादि संवर इन सब पदों का अन्तिम फल मोक्ष कहा गया है । ६५
ज्ञातृधर्मकथाङ्ग में संवर शब्द का प्रयोग मात्र एक प्रसंग में हुआ है। राजा शैलक के श्रावक बनने आदि के वृत्तान्त पूर्वक कहा गया है कि अनगार थावच्चापुत्र से धर्म श्रवण कर वह राजा श्रमणोपासक हो गया तथा जीव, अजीव, आस्रव, संवर आदि का तत्त्वज्ञानी हो एवं तप कर्मों सहित आत्मलीन हो जीवन व्यतीत करने लगा।६६
उपासक दशाङ्ग में संवर शब्द तीन प्रसंगों में प्रयुक्त है। श्रमण महावीर आनन्द को सम्बोधित करते हुए कहते हैं-आनन्द ! श्रमणोपासक को, जीव तथा
६३. वही, ९।३१। ६४. वही, १४१११२ । ६५. वही, १७१४८। ६६. ज्ञातधर्मकथाङ्ग ११५४७ ।
संकाय पत्रिका-२
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