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( ३५ ) के नष्ट होते ही कार्य उत्पन्न हो जाता है। शून्यवादी तो कहेंगे कि कार्य का कारण कभी सद्रूप होता ही नहीं, असत् होते हुए भी क्षण-क्षण में प्रतीत होता रहता है। इस मत को लोग असल्यातिवाद कहते हैं। विज्ञानवादियों के अनुसार विज्ञानरूपी आत्मा क्षण-क्षण में नये-नये बाह्य पदार्थों के रूप में प्रतीत होती है । उपादान-कारण जब वास्तव में कार्य के रूप में बदल जाय तो उसे परिणामवाद कहते हैं जिसे सांख्य योग और रामानुज-वेदान्त में माना गया है । जब कारण की परिणति कार्य के रूप में सचमुच नहीं हो, केवल वैसी प्रतीति हो तो उसे विवर्तवाद कहते हैं जो शंकराचार्य की मान्यता है।' __ शंकराचार्य के विवर्तवाद का एक रूप दृष्टि-सृष्टिवाद के रूप में देखने में आता है। इसका अर्थ है कि जिस समय हमने देखा उसी समय उसकी सृष्टि हो गई । वस्तुस्थिति यह है कि देखने के समय द्रष्टा की अविद्या के कारण उक्त वस्तु उस रूप में सृष्ट ( Created ) दिखलाई पड़ती है । पहले से उसकी सत्ता नहीं रहती । राम ने सीपी में रजत देखा तो उस समय उस स्थान पर रजत राम की अविद्या से ही उत्पन्न हुआ है, उसके पूर्व या पश्चात् रजत की प्रतीति नहीं होती। सांसारिक प्रपंच भी व्यक्ति की अविद्या के कारण तात्कालिक और तद्रूप ही सृष्ट होता है। जीवों को नानात्मक मानने पर प्रपंच का भेद भी होगा। वास्तव में 'जीव होना' ही अविद्या का कारण होता है, वह वस्तुतः तो है नहीं। अभिनवगुप्त के सम्प्रदाय ( प्रत्यभिज्ञा ) में भी यही बात कही गयी है परन्तु वे लोग प्रतिबिम्बवाद नाम का सिद्धान्त मानते हैं । यह ठीक है कि जगत ब्रह्म के कारण है किन्तु न तो ब्रह्म ने संसार का आरम्भ ही किया है, न तो वह ब्रह्म का परिणाम है और न ही विवर्त । जैसे दर्पण में बहिर्भूत पदार्थों का प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ता है वैसे ही ब्रह्म में अन्तर्भूत जगत् का प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ता है । बिम्ब के स्थान पर स्वीकृत माया ब्रह्म में अपना सम्बन्ध दिखाकर बिम्ब के अभाव में भी प्रतिबिम्ब उत्पन्न करती है । अतः न तो बिम्ब को अलग मानकर द्वैत-पक्ष में जाना पड़ता और न 'बिम्ब पृथक् नहीं है' कह कर मूलच्छेद ही करने की आवश्यकता है ।
तत्त्व-विचार-सभी दार्शनिकों ने, चाहे वे कहीं के हों, किसी-न-किसी रूप में संसार के मूल पदार्थों ( Ultimate Reality ) पर विचार किया है । इन्हें ही भारतीय दर्शन में पदार्थ या 'तत्त्व' के नाम पुकारते हैं। चार्वाक लोगों का कहना है कि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु, ये चार तत्त्व हैं । बौद्ध लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के तत्त्व मानते हैं। शून्यवादी केवल शून्य को, योगाचार वाले केवल विज्ञानस्कन्ध को तथा अन्य बौद्ध पांच आन्तरिक