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प्रतीति भी उन्हें माननी पड़ती है। जैनों के अनुसार जीवात्मा देह से भिन्न ही है किन्तु देह के परिमाण में ही रहती है। देह के बढ़ने और घटने से जीवात्मा भी बढ़ती घटती रहती है। उनके अनुसार जीवात्मा नित्य तो है किन्तु उसमें विकार होते रहते हैं । दूसरे शब्दों में वह आत्मा कूटस्थ ( एक समान रूप में ) नित्य नहीं है ।
आस्तिक दर्शनों में नैयायिकों और वैशेषिकों का यह कहना है कि जीवात्मा के गुण बुद्धि, सुख, दुःख आदि जब अनित्य हैं तो जीवात्मा भी विकारी है क्योंकि धर्मी में आने और जाने वाले धर्म धर्मी को विकारशील बना देते हैं । कहने का अभिप्राय है कि जीवात्मा कूटस्थ नित्य नहीं है और आत्मा का स्वरूप जड़ के समान हो जाता है । यही कारण है कि मुक्ति की दशा में ज्ञान का नाश हो जाने से आत्मायें पाषाणवत् हो जाती है । प्रभाकर-मीमांसकों के मत से यह सिद्धान्त बहुत कुछ मिलता-जुलता है । मीमांसकों का दूसरा सम्प्रदाय भाट्ट-सम्प्रदाय मानता है कि आत्मा अंश के भेद से ज्ञान और जड़ दोनों के रूप में है । शैव, सांख्य और योग के सम्प्रदायों में तथा वेदान्तियों के मत से आत्मा केवल जान के स्वरूप में है । यह दूसरी बात है कि अद्वैत वेदान्ती, सांख्य और योग वाले आत्मा को निर्गुण मानते हैं जब कि द्वैत वेदान्ती, विशिष्टाद्वैत वेदान्ती, नैयायिक और वैशेषिक आत्मा को सगुण मानते हैं ।
जहाँ तक जीवात्मा के परिमाण ( Magnitude ) का सम्बन्ध है, बौद्ध लोग कहते हैं कि आत्मा विज्ञानों का प्रवाह है अतः उसका कोई परिमाण नहीं हो सकता । वास्तव में आत्मा का आश्रय कोई है ही नहीं जिससे आत्मा उसके अनुरूप कोई परिमाण धारण कर ले। रामानुज, मध्व और वल्लभ सम्प्रदाय वाले कहते हैं कि जीव का परिमाण अणु के समान (Atomic) है । नैयायिक वैशेषिक, सांख्य, पातञ्जल तथा अद्वैत वेदान्त वाले जीवात्मा को विभु (Allpervasive) कहते हैं । चार्वाक, शून्यवादी और जैन लोग आत्मा को अणु और विभु के बीच में रखते हैं अर्थात् जीवात्मा मध्यम परिमाण की है ।
जीव कर्त्ता या भोक्ता है, इस विषय पर भी मत भेद है । नैयायिक और वैशेषिक तो जीवात्मा का कर्तृव्य सत्य मानते हैं किन्तु रामानुज और मध्वसम्प्रदाय वाले उसके सत्य होने पर भी उसे नैमित्तिक मानते हैं स्वाभाविक नहीं । अद्वैत वेदान्ती कहते हैं कि जीवात्मा कुछ उपाधियों के कारण ही कर्त्ता बनती है । सांख्य योग में प्रकृति को कर्त्ता माना गया है । इसलिये प्रकृति के
१. दे० पंचदशी ( ६८८ ) ।