Book Title: Sarva Darshan Sangraha
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 13
________________ है किन्त यह अन्य पदार्थों से सर्वथा भिन्न है। वह संसार का उपादान-कारण नहीं, केवल निमित्त-कारण है। महेश्वर-सम्प्रदाय, नैयायिक और वैशेषिकदर्शनों की भी यही मान्यता है। लेकिन इस दर्शन-समूह में दो मत हो जाते हैं। पाशुपत और प्रत्यभिज्ञा दर्शनों में यह माना गया है कि ईश्वर कर्म का फल देने के समय जीवों के द्वारा किये कर्मों की अपेक्षा नहीं रखता क्योंकि ऐसा मानने पर ईश्वर की स्वतंत्रता नहीं रह सकेगी। दूसरे महेश्वर वैशेषिक और माध्वमत वाले कहते हैं कि ईश्वर कर्मों की अपेक्षा रखते हुए ही संसार का निर्माण करता है। ___ योग-दर्शन में यद्यपि ईश्वर जीव से भिन्न है किन्तु वह न तो संसार का निमित्त-कारण है और न उपादान ही। वह सर्वथा निर्लेप और निर्गण है।। शंकराचार्य के अनुसार भी ईश्वर वैसा ही है किन्तु वह पारमार्थिक है। यह स्मरणीय है कि जगत् और ईश्वर की सत्ताओं में अन्तर है। अतः दोनों में कार्य-कारण-भाव होना असम्भव है। माया के आधार पर ईश्वर संसार का उपादान-कारण बनता है किन्तु विवर्त रूप से ।। ईश्वर के विषय में दिये गये बहुत से प्रमाण हैं । किन्तु सभी अनुमान और श्रुति पर आधारित हैं । यदि श्रौत-दर्शन हो तो ईश्वर श्रुति-सिद्ध है और यदि तार्किक दर्शन हो तो ईश्वर की सिद्धि अनुमान से करते हैं। फिर भी श्रुति की प्रधानता अन्ततः स्वीकार करनी ही पड़ती है। (२) जीव-ईश्वर के समान ही जीव को लेकर भी दार्शनिकों में बड़ा विवाद है। सर्वप्रथम चार्वाकों की ओर दृष्टिपात करने पर हम देखते हैं कि वे शरीर को ही आत्मा कहते हैं यदि उसमें चैतन्य हो। कर्ता और भोक्ता भी वही है। चार महाभूतों ( Gross elements ) के मिलने से विशेष क्रिया द्वारा चैतन्य उत्पन्न होता है। उसमें चैतन्यांश के द्वारा ज्ञान होता है देहांश तो जड़ के रूप में ही है । यह दूसरी बात है कि कुछ चार्वाक इन्द्रियों को ही आत्मा मानते हैं । कुछ प्राण को और कुछ मन को भी आत्मा मानते हैं चार्वाकों का मत विभिन्न दर्शनों में पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थित किया गया है, स्वतन्त्र रूप से तो कहीं उनके विचार मिलते ही नहीं। बौद्धों के अनुसार जीवात्मा विज्ञान के रूप में है। चूंकि विज्ञान क्षण-क्षण बदलने वाले प्रवाह के समकक्ष है इसलिये आत्मा भी क्षण-क्षण बदलने के कारण अनित्य है। पूर्व क्षण में उत्पन्न विज्ञान अपने उत्तर-क्षण में संस्कार के रूप में चला आता है इसलिये स्मृति आदि की सिद्धि की जाती है । शून्यवादी बौद्ध तो आत्मा के मूल रूप को शून्य ही मानते हैं किन्तु व्यवहार की दशा में आत्मा की

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