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( ३० ) उन्हें हम वेदवादी भी कह सकते हैं । इनमें शंकराचार्य, जैमिनि, पाणिनि आदि आते हैं। तार्किक दार्शनिक से हमारा अभिप्राय यह है कि मूलतत्त्व के अनुसंधान में ये लोग एकमात्र तर्क का सहारा लेते हैं । तर्क और कुछ नहीं, अनुमान का ही दूसरा नाम है । ये लोग श्रुति में प्रतिपादित विषयों को भी तर्क-निकष पर कसने पर ही प्रमाण मानते हैं। ताकिकों के भी दो भेद हैं-एक तो वे दार्शनिक जो अपने को स्पष्टतः तार्किक कहते हैं और दूसरे वे जो अपने को श्रीत कहने पर भी भीतर-भीतर तर्क का ही सहारा लेते हैं । बादरायण के ब्रह्मसूत्र की व्याख्या करने वाले रामानुज और माध्व सम्प्रदाय वाले दार्शनिक कहते हैं कि हम लोग उपनिषदों को प्रमाण मानते हैं किन्तु श्रुति-वाक्यों का जो अर्थ उन्होंने पूर्वाग्रह के कारण किया है उससे तो यह स्पष्ट मालूम होता है कि ये प्रच्छन्न तार्किक हैं। उदाहरण के लिए स्पष्ट रूप से जीव और ब्रह्म की एकता का निर्देश करने वाले 'तत्त्वमसि' इस वाक्य का उन दोनों ने कैसे निर्वाह किया है यह देखने ही योग्य है । रामानुज की दशा तो और भी दयनीय है ।' वे अपने श्रीभाष्य में शंकराचार्य की खिल्ली उड़ाते हैं कि शंकर श्रौतमत के बहाने से छिपकर बौद्ध धर्म का प्रचार कर रहे हैं । और रामानुज ? वेद-मत का प्रचार करते हुए क्या छिपे हुए तार्किक वे नहीं हैं ?
सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक आदि भी तार्किक ही हैं क्योंकि इन्होंने भी अपनी प्रतिष्ठा अनुमान के बल पर ही की है। यहाँ स्मरणीय है कि श्रौत और तार्किक दार्शनिकों में भेद का कारण यह है कि श्रौत पक्ष में वेदों को स्वतःप्रमाण माना गया है जब कि तार्किक पक्ष में उन्हें परतःप्रमाण मानते हैं। स्वतःप्रमाण का अर्थ है कि वेदों की प्रामाणिकता अपने आप में सिद्ध ( Selfevident ) हैं, किसी दूसरे प्रमाण को उसे सिद्ध नहीं करना पड़ता। तदनुसार वेदों को औपौरुषेय मानते हैं। वेदों की शक्ति अकुण्ठित या अप्रतिहत है। दूसरी ओर, जो लोग वेदों को परतःप्रमाण मानते हैं उनका यह कहना है कि वेद पौरुषेय हैं, अनित्य हैं, उनकी सिद्धि के लिए हमें दूसरे साधनों पर निर्भर करता पड़ता है। इस दशा में वेदों को पुरुष अर्थात् ईश्वर की रचना मानते हैं।
पौरुषेय और अपौरुषेय का विचार मीमांसा-दर्शन में अच्छी तरह हुआ है । अन्त में वेदों को अपौरुषेय ही माना गया है । इनका कथन है कि वेद ईश्वर से केवल प्रकाशित हुए हैं । जैसे मनुष्य अनायास ही निःश्वास छोड़ता है, उसे न तो बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है या न किसी परिश्रम की। उसी प्रकार वेद भी ईश्वर से प्रादुर्भूत हुए हैं। अपौरुषेय मानने पर ही
१ देखिये, पृ० २४७ ।