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सम्यचारित्रचिन्तामणि सामायिकाच्युतो सत्यां पुमस्तत्रैव संस्थिताः। छेवोपस्थापनायुक्ता भवन्तीह मुनीश्वराः ॥ १४ ॥ एतौ सुसंयमौ ननमाषष्ठान्नवमाबधिम् ।।
भवतो मुनिराजानां जिनदेवनिरूपितौ ।। १५ ।। अर्थ-इस भूतलपर कितने ही मुनिराज सर्वसावध संयोग-समस्त पाप कार्योंका त्यागकर समता-साम्यभावके आधार होते हुए सामायिक चारित्रके धारक होते है और जो सामायिक चारित्रसे च्युत होने पर पुनः उसीमे स्थित होते है वे छेदोपस्थापना चारित्रके धारक कहलाते है। जिनेन्द्रदेवके द्वारा निरूपित ये दोनो उत्तम संयम मुनिराजो के छठवे गुणस्थानसे लेकर नौवे गुणस्थान तक होते हैं ॥ १३-१५ ।। आगे परिहारविशुद्धि सयमका वर्णन करते है
त्रिंशद्वर्षाणि यो धाम्नि सुखेन स्थितवान् सदा । पश्चाद् विरज्य भोगेभ्यस्तीर्थकृत्पादमूलयोः ॥ १६ ।। दीक्षित्वा ह्यष्टवर्षाणि प्रत्याख्यानाभिधानकम् । अधीत्य पूर्व यः प्राप्तः परिहारद्धि दुर्लभाम् ॥ १७॥ गव्यतिप्रमितं नित्य बिहरन् नियमेन च । जीवराशो गमि कुर्वन् न च लिम्पति पापतः ॥१८॥ परिहारविशुद्धचाख्यः संयमो स हि कथ्यते । षष्ठसप्तमयोर्धाम्नोरेव स्यात्परिशंसितः ॥ १९ ॥ आद्योपशमसदृष्टिमनःपर्ययबोधवान् ।
आहारकद्धिसयुक्तो नंत संलभते क्वचित् ॥ २० ॥ अर्थ-जो तीस वर्ष तक सदा सुखसे घरमे रहा है, पश्चात् भोगोसे विरक्त हो तीर्थङ्करके पादमूलमे दीक्षित हो आठ वर्ष तक प्रत्याख्यान पूर्वका अध्ययन कर दुर्लभ परिहार विशुद्धि ऋद्धिको प्राप्त हुआ है, जो नियममे प्रतिदिन दो कोश विहार करता है तथा जीवराशिपर गमन करता हुआ भी पापसे लिप्त नही होता अर्थात् ऋद्धिके प्रभावसे जिसके द्वारा जोवोका घात नही होता वह परिहार विशुद्धि संयमका धारक कहलाता है। यह परिहार विशुद्धि सयम छठवे और सातवे गुणस्थानमे होता है। प्रथमोपशम सम्यग्दष्टि, मन पर्यय ज्ञानी और आहारकऋद्धिसे युक्त मुनि कही भी इस सयमको प्राप्त नही होते हैं ।। १६.२०॥