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अष्टमे प्रकाश
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लोक और ऊठलोकके भेदसे यह तीन प्रकारका माना गया है । अधोलोकमें नारकी रहते हैं, मध्यलोकमे मनुष्य रहते हैं, ऊर्वलोकमे देव रहते हैं और तियंश्व सभी लोकोमे रहते हैं । यह अत्यन्त विस्तृत लोक जीवराशिसे व्याप्त है। तीनो लोकोमें वह एक भी प्रदेश नहीं है जहाँ मैं उत्पन्न नहीं हुआ हूँ और मरा नही हूँ। बड़े दुःखकी बात है कि क्षेत्र परावर्तनमे में सर्वत्र अनेक बार घूम चुका हूँ | मैंने जन्म और मृत्युका महान दुःख अनेक बार प्राप्त किया है। इस तरह लोकका स्वरूप विचार कर जो उससे विरक्त होते हैं वे हो कर्मरहित हो लोकके अग्रभागपर निवास करते हैं और जो नदी तथा पर्वतोंका सौन्दर्य, चाँदी के समान चांदनीकी प्रभा, सूर्योदयकी सुन्दरता और झरनोंके प्रपातको देखकर किसी प्रदेशमे राग करते हैं तथा वहीं विहार करते हैं एवं निर्जल तथा वृक्षहोन मरुभूमिको देखकर द्वेष करते है, रागद्वेषके वशीभूत हुए वे मनुष्य इन्ही तीनों लोकोमें उत्पन्न होते और मरते रहते हैं ।। ६४-१०३ ।।
मागे बोधिदुर्लभ भावनाका चितवन करते हैं
लोकोऽयं सर्वतो व्याप्तः स्थावरजीवराशिभिः । स्थावरात् प्रसता प्राप्तिर्युर्लभा वर्ततेतराम् ॥ १०४ ॥ Anatri च संशित्वं संशित्वे च मनुष्यता । मनुष्यत्वे च सत्क्षेत्रं सत्क्षेत्रे च कुलीनता ।। १०५ ।। कुलीनतायामारोग्यमारोग्ये दीर्घजीविता । तत्र सम्यक्त्वसंप्राप्तिस्तत्राप्तात्मनि लक्ष्यता ॥ १०६ ॥ तत्राप्यदोषचारित्वं दुर्लभं ह्यतिदुर्लभम् । एवं विचार्य सद्द्बोधेबर्डभ्यं तत् सुरक्ष्यताम् ॥ १०७ ॥ यथेह दुर्लभं ज्ञात्वा मणिमुताबिक नराः । रक्षन्ति तत्परत्वेन बोधी रम्यस्त्वया तथा ।। १०८ ।। बोधो रत्नत्रयं नाम दुर्लभं वर्तते नृणाम् । एकावशाद् गुणस्थानात् पतिताः साधवी ह्यधः ॥ १०९ ॥ अर्धपुद्गल पर्यन्तं पर्यटन्ति भवेभवे । केचिच्चान्तर्मुहूर्तेन सध्या रत्नत्रयं निधिम् ॥ ११० ॥ प्राप्नुवन्ति शिवं सद्यः स्वात्मन्येव रता नराः । परिणामस्य वैचित्र्यं यस्व बुध्यते ॥ १११ ॥